Wednesday, 30 October 2013

डाकिन्यां भीमशंकरम ………..भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग यात्रा.

पिछ्ली पोस्ट इंदौर से पुणे में आप लोगों ने पढा कि हम लोग भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग यात्रा के लिये इन्दौर से पुणे पहुंचे, वहां रात्री विश्राम करके अगले दिन पुणे के प्रसिद्ध दगड़ुशेठ गणपती मंदिर के दर्शन किये तथा नाश्ता करके अपने होटल पहुंच गये…….अब आगे……
आज हमें महाराष्ट्र परिवहन की बस से लगभग चार घंटे का सफ़र तय करके पुणे से भीमाशंकर जाना था। अब हमें जल्दी से भीमाशंकर की बस बस पकड़नी थी अत: अपना सामान पेक करके करीब ग्यारह बजे होटल चेक आउट करके ओटो लेकर शिवाजी नगर बस स्टाप की ओर बढ चले।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
पुणे के होटल में चेक आउट के दौरान
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
होटल के रिसेप्शन पर
पुणे का मार्केट बड़ा अच्छा लग रहा था लेकिन समय के अभाव के कारण कुछ विशेष खरीदारी  नहीं कर पाए। बातों बातों में ओटो वाले ने बताया की पुणे से और कुछ खरीदो या न खरीदो लेकिन यहां का लक्ष्मीनारायण चिवड़ा जरूर लेकर जाना, बहुत प्रसिद्ध है. एक बार खाओगे तो खाते रह जाओगे। खैर..

कुछ आधे घंटे में आटो वाले ने हमें शिवाजी नगर बस स्टाप पर छोड़ दिया, बस स्टाप पर पता चला की भीमाशंकर की बस बारह बजे आएगी। कुछ देर बाद पता चला की बारह वाली बस फ़ेल हो गई है और अब अगली बस एक बजे आएगी, यह सुनते ही हम सब निराश हो गए क्योंकी पुणे का बस स्टाप इतना अच्छा नहीं था की वहां एक डेढ घंटा बैठा जा सके लेकिन क्या किया जाए, जाना  तो था ही वैसे भी हमें भिमाशंकर में रात रुकना था अत: समय की कोई समस्या नहीं थी, बस का इन्तज़ार कर रहे थे की तभी मुझे आटो वाले की चिवड़े वाली बात याद आ गई, मैनें सोचा की बंदा इतनी तारिफ़ कर रहा था तो ले ही लेते हैं।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
पुणे बस अड्डे पर इन्तज़ार के पल ….
थोड़ी देर ढुंढने पर ही बस स्टेंड के पास ही एक दुकान पर लक्ष्मीनारायण चिवड़ा मिल गया तो मैनें आधा किलो का एक पेकेट ले लिया, बाद में घर लौटने के बाद जब वो चिवड़ा खाया तो वो वाकई लाज़वाब निकला…मैने सोचा काश दो तीन किलो ले आता…….खैर रात गई बात गई।
ठीक एक बजे बस आ गई। हमें सुविधाजनक सीटें भी मिल गई और करीब दस मिनट के बाद ही बस हमारी बस पुणे से निकल पड़ी। लगातार चलते रहने के बावजुद भी बस को पुणे शहर से बाहर निकलने में करीब पौन घंटा लग गया, इसी से मैनें पुणे की विशालता का अन्दाजा लगा लिया था।
पुणे शहर से निकलते ही मौसम एकदम सुहावना हो गया था, आसमान काले काले मेघों से ढंक गया था और कुछ ही देर में  हल्की हल्की बारीश शुरु हो गई थी, सावन का महीना था और बादलों को परमीट मिला हुआ था कभी भी कहीं भी बरसनॆ का, फिर भला वो क्यों मानने वाले थे। जैसे ही मैंने बस से बाहर झांका मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। आँखों के समक्ष हरियाली से लदी छोटी छोटी पहाड़ीयां अद्वितीय लग रहीं थीं।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
पुणे से भीमाशंकर के रास्ते पर
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
पुणे से भीमाशंकर के रास्ते पर
हल्की मीठी ठंड ने मेरे शरीर में सिहरन पैदा कर दी और मेरा मन प्रसन्नता से भर गया। चारों ओर ऐसा प्रतीत होता था, मानो प्रकृति ने अपने खजाने को बिखेर दिया हो, चारों ओर मखमल-सी बिछी घास, बड़े और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष ऐसे प्रतीत होते थे मानो सशस्त्र सैनिक उस रम्य वाटिका के पहरेदार हैं। पहाड़ीयों से झरते सुंदर झरने वो भी एक दो नहीं कई कई, जहाँ भी नज़र दौड़ाओ वहीं सौंदर्य का खजाना दिखाई देता था। इस सुंदर द्रश्य को देखकर अनायास ही मुझे बचपन में पढी सुमित्रा नंदन पंत की एक सुंदर कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” याद आ गई जिसकी दो पंक्तियां यहां लिखने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हुं :
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
हरियाली की चादर ओढे धरती इतने सुन्दर द्रश्य उपस्थित कर रही थी जिनका वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं है, यदि आप सौन्दर्य-बोध के धनी हैं और सुन्दरता आपकी आँखों में बसी है तो मुझे और वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं है। कभी आसमान साफ़ हो जाता तो कभी बादल छा जाते, सचमुच प्रक्रति पल पल अपना वेश बदल रही थी।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
रास्ते में ऐसे कई सारे झरने मिले…
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
नैसर्गिक खुबसूरती
आधे रास्ते की सड़क अच्छी है और आधे रास्ते की कामचलाउ। अच्छीवाली सड़क पर यातायात की अधिकता के कारण और कामचलाउ सड़क पर ‘कामचलाउपन’ के कारण वाहन की गति अपने आप ही सीमित और नियन्त्रित रही। सिंगल लेन होने के कारण सामने से और पीछे से आ रहे वाहनों को रास्ता देने के कारण, चालक को वाहन की गति अनचाहे ही धीमी करनी पड़ रही थी।
वैसे तो कहा जाता है की पुणे से भीमाशंकर पहुंचने में चार घंटे लगते हैं लेकिन सच यह है की  बस से पांच घंटे से कम नहीं लगते हैं। प्रक्रति की असीम सुंदरता को निहारते हुए हम लोग करीब छ: बजे भीमाशंकर पहुंचे। मन में इतनी प्रसन्नता थी, जिसका बयान करना मुश्किल है, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था की हम अन्तत: वहां पहुंच ही गये जहां जाने की मन में वर्षों से तमन्ना थी।
बस ने हमें मन्दिर पहुँच मार्ग के लगभग प्रारम्भिक छोर पर पहुँचा दिया था। मुश्किल से सौ-डेढ सौ मीटर की दूरी पर मन्दिर की सीढ़ियाँ शुरु हो जाती हैं। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी में है सो जाते समय आपको सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं और आते समय चढ़नी पड़ती है। सीढ़ियों की संख्या लगभग २५० हैं। सीढ़ियाँ बहुत ही आरामदायक हैं – खूब चौड़ी और दो सीढ़ियों के बीच सामान्य से भी कम अन्तरवाली। मंदिर पहुंचने का उत्साह इतना हावी था की इन सीढियों की थकान हमें पता ही नहीं चल रही थी। सीढियॉं आपको मन्दिर के पीछेवाले हिस्‍से में पहुँचाती हैं। अर्थात्, मन्दिर के प्रवेश द्वार के लिए घूम कर जाना पडता है।
बस से जैसे ही उतरे घने कोहरे तथा बारीश ने हमारा स्वागत किया, चुंकि हम छाते, रैन कोट वगैरह घर से लेकर नहीं आये थे अत: भीगते हुए सीढियां उतरने को मज़बुर थे, खैर बारिश ज्यादा तेज नहीं थी अत: ज्यादा परेशानी नहीं हुई, लेकिन कोहरा इतना घना था की थोड़ी सी दुरी से भी हम एक दुसरे को देख नहीं पा रहे थे, ऐसा लग रहा था की चारों ओर घुप्प अंधेरा छाया हुआ है। सबसे ज्यादा परेशानी फोटो खिंचने में आ रही थी, कोहरे की वजह से फोटो लेना मुश्किल हो गया था। ये कोहरा तथा बारिश अगले दिन सुबह नौ बजे तक यथावत रहे, यानी हमने अपने प्रवास के दौरान भीमाशंकर में धूप या साफ़ आसमान तो दुर की बात है, उजाला भी नहीं देखा, स्थानीय लोगों से बात करने पर मालुम हुआ की ऐसा मौसम यहां लगातार एक महीने से बना हुआ है, यानी एक महीने से धूप के दर्शन नहीं हुए थे।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
कोहरे में डूबे भीमाशंकर में प्रवेश
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
शिवम…
चुंकी हम लोग कभी पहाड़ों पर नहीं गये हैं अत: ऐसा द्रश्य मैने अपने जीवन में पहली बार देखा था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार, बहुत ही अद्भूत, कभी ना भुलाये जाने वाला द्रश्य…… धुंध की वजह से हमें सामने की बस तीन चार सीढियां ही दिखाई देती थीं….हम भी बस अपने बैग उठाए आगे की ओर चले जा रहे थे।
कुछ देर इसी तरह चलते रहे और अचानक सामने मंदिर आ गया जिसे देखकर ऐसा लगा कि हमें अपनी मन्ज़िल मिल गई, लेकिन अभी इस वक्त हमें ठहरने के लिये एक अदद कमरे की ज्यादा आवश्यकता थी। चुंकि हमें पहले से पता था की भीमाशंकर में रात रुकना सबसे बड़ी समस्या है, यहां रुकने की किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं है, न कोई होटल न धर्मशाला, बस कुछ स्था्नीय लोग अपने घरों में यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था करते हैं जो की बहुत ही निम्न स्तरीय होती है।
लेकिन हम लोग इस मामले में थोड़े जिद्दी टाईप के हैं, यदि ज्योतिर्लींग दर्शन के लिये जा रहे हैं तो  उस जगह पर कम से कम एक रात तो रुकना ही है, कैसे भी, किसी भी हालत में…वो भी मंदिर के एकदम करीब। वैसे तो हर तीर्थ पर हम एक या दो दिन रुकने की कोशीश करते हैं, लेकिन ज्योतिर्लिंग के मामले में एकदम ढीठ हैं।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
भीमाशंकर मंदिर कोहरे की चपेट में
Image-132
विशाल राठोड़ की पोस्ट से सधन्यवाद लिया गया मंदिर का चित्र
DSC02527-640x480
विशाल राठोड़ की पोस्ट से सधन्यवाद लिया गया मंदिर का चित्र - मंदिर सभाग्रह
कविता तथा बच्चों को मंदिर की दिवार के पास सामान के साथ खड़ा करके मैं चल दिया कमरा ढुंढने, एक दो जगह स्थानीय लोगों से पुछा तो उन्होने अपने कमरे दिखाये…..बदबुदार सीलनभरे कबुतर खाने की शक्ल लिये ये कमरे देखकर मैं उपर से निचे तक हिल गया। पलंग, पंखा तो भूल ही जाओ बाबुजी, शौचालय तक नहीं थे उन कमरों में ………..चार्ज २५० रुपया, खाने की थाली ७० रुपये, टायलेट के लिये डिब्बा लेकर बाहर जाना होगा, नहाने के लिये घर के बाहर टाट के पर्दों से बनी एक छोटी सी खोली। लगातार बारीश, और कंपा देने वाली ठंड में नहाने के लिये गरम पानी की कोई व्यवस्था नहीं। मैं हताश हो गया ये सब माहौल देखकर, परिवार साथ था, शाम का वक्त था, रात ठहरना आवश्यक था क्योंकि शाम छ: बजे पुणे के लिये अन्तिम बस थी जो निकल चुकी थी, और वैसे भी साधन मिल भी जाता तो क्या, अभी तो दर्शन भी नहीं किये थे।
एक कमरा देखा, दुसरा देखा, तीसरा देखा…….सभी दुर वही कहानी, बारीश में भीगे बच्चे इंतज़ार कर रहे थे और इधर मुझे कोई सुविधाजनक कमरा नहीं मिल रहा था। मुझे परेशान होता देख एक दुकान वाले ने कहा भाई साहब मंदिर के ठीक पिछे एक गेस्ट हाउस है “शिव शक्ति” वहां आपको कुछ सुविधाओं वाला कमरा मिल सकता है, मैं तुरंत उसकी बताई दिशा में बढ चला और कुछ कदम चलते ही मुझे वो गेस्ट हाउस मिल गया। दो मन्ज़िला पुराना सा भवन था यह गेस्ट हाउस जो की बहुत ही बेतरतीब तरिके से बना हुआ था। उपरी मन्ज़िल पर आठ दस कमरे बने थे तथा निचे केयर टेकर का घर और भोजनालय था। कमरे का चार्ज २५० रु. और खाने की थाली ७० रु. जिसमें तीन रोटी काम्प्लिमेंट्री तथा उसके बाद प्रति रोटी दस रु.अलग से।
एक लाईन में सराय वाली स्टाईल में कुछ कमरे बने थे, हालात यहां भी कुछ ज्यादा अच्छे नहीं थे लेकिन हां कमरे में लाईट के लिये एक लट्टू लटक रहा था, दो लोहे के पलंग लगे थे बिस्तर सहीत, जहां ये आठ दस कमरे खतम होते थे वहां एक शौचालय बना था….कौमन, लकड़ी के दरवाजे वाला जिसमें अंदर की ओर एक सांकल लगी थी और कोने में एक प्लास्टिक का ड्रम रखा था पानी के लिये…. बस यही एक सुविधा थी इस गेस्ट हाउस में जो इसे दुसरों से अलग तथा विशेष बनाती थी। छत पतरे (टीन) की चद्दरों की थी।
मैने आनन फ़ानन में इस गेस्ट हाउस की केयर टेकर जो की एक सत्तर साल की महाराष्ट्रियन बुढिया थी, को तीन सौ रुपये पकड़ाए और सर्वसुविधायुक्त कमरा मिलने की प्रसन्नता में बौराया सा, बौखलाया सा भागा मंदिर की ओर अपने परिवार को लेने…. सामान तथा बच्चों को लेकर जब मैं उस कमरे में पहुंचा तो कमरा देख कर दोनों बच्चे मासुमियत से बोले ..पापा आपको यही कमरा मिला था रहने के लिये … मैनें भी उसी मासुमियत से जवाब दिया, हां बेटा यही कमरा यहां का बेस्ट है….सर्वसुविधायुक्त है….
थके हुए, भीगे हुए हम सब, कमरे में सामान रखते ही बिस्तर पर गिर पड़े। कुछ देर आराम करने के बाद मंदिर में दर्शन आरती आदि का पता किया, शाम साढे सात बजे शयन आरती होनी थी जिसका अब समय हो चला था, अत: हमने सोचा की आरती में शामिल होने तथा प्रथम दर्शन के लिये ये समय सर्वथा उपयुक्त है अत: हम लोग मुंह हाथ धोकर कपड़े बदलकर मंदिर की ओर चल दिये, गेस्ट हाउस मंदिर से इतना करीब था की गेस्ट हाउस की सीढियां खतम होते ही मंदिर का परिसर प्रारंभ हो जाता था।
मंदिर में प्रवेश किया, कुछ देर मंदिर के सभाग्रह का अवलोकन करने के बाद गर्भग्रह में प्रवेश करके अपने ईष्टदेव के दर्शन किये….और इस तरह एक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन संपन्न हुए और अब आज हम अपने दसवें ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर चुके थे।
अपने तय समय पर आरती प्रारंभ हुई, हम सब भी बड़े मनोयोग से आरती में शामिल हुए और आरती के बाद पुन: पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन किये। चुंकि अगस्त का महीना था, वैसे ही श्रद्धालुओं की भीड़ कम थी और फिर जो लोग पुणे से बस द्वारा दर्शन के लिये आते हैं वे आमतौर पर शाम छ: बजे तक लौट जाते हैं अत: भीड़ कम होने की वजह से दर्शन बहुत अच्छे से हो गए थे।
एक और बात है, यहां भी अन्य ज्योतिर्लिंगों की तर्ज़ पर क्षरण से बचाव के लिये ज्योतिर्लिंग पर पुरे समय एक चांदी का कवच (आवरण) चढा कर रखा जाता है, जिससे ज्योतिर्लिंग के साक्षात दर्शन नहीं हो पाते हैं। हमने गर्भग्रह में पूजा करवा रहे एक पंडित जी से आवरण के हटाने के समय के बारे में पुछा तो उन्होने बताया की यह आवरण सुबह सिर्फ़ आधे घंटे के लिये ५ से ५.३०  बजे तक खुलता है, उस समय दर्शन किये जा सकते हैं, और हमने यह निश्चित किया की सुबह ५ बजे आकर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करेंगे। अब हमने सुबह के अभिषेक के लिये मंदिर के पंडित जी से बात की, हमें अभीषेक के लिये भी सुबह पांच बजे का ही समय मिला, यह सुनकर हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, यानी हम बिना आवरण के ज्योतिर्लिंग पर अभिषेक कर पायेंगे…यहां रुद्र अभिषेक का चार्ज ५५० रु. है।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
हर जगह और हर समय कोहरा ही कोहरा
सुबह के अभिषेक के लिये समय वगैरह तय करके अब हम वापस अपने गेस्ट हाउस के उस सर्वसुविधायुक्त कमरे में आ गए। सुबह के नाश्ते के बाद अब तक कुछ खाया नहीं था अत: कुछ ही देर में हम गेस्ट हाउस के निचे स्थित भोजनालय में पहुंच गये, खाना ज्यादा अच्छा नहीं था लेकिन  भुख की वजह से वह खाना भी बहुत टेस्टी लग रहा था, दुसरी बात यह थी की खाना एकदम गर्मा गरम सर्व किया जा रहा था, बाहर के एकदम ठंडे वातावरण में यह गर्म खाना सन्जीवनी का काम कर रहा था।
खाना खाने के बाद गेस्ट हाउस वाली अम्मां से हमने निवेदन किया की हमें सुबह दो बाल्टी गर्म पानी दे दिजिएगा, लेकिन उन्होनें हमारे इस निवेदन को सीरे से खारिज़ कर दिया, हमने फ़िर कहा हमारे साथ छोटे छोटे बच्चें हैं, आप चाहे तो दस बीस की जगह हमसे एक बाल्टी का ५० रु. ले लेना, लेकिन वो नहीं मानी, उनकी दलील यह थी की कई दिनों से सुखी लकड़ी देखने को नहीं मिली है, और गैस की यहां बहुत किल्लत है…..खैर निराश होकर हम अपने कमरे में आकर सो गए, यह सोच कर की जो भी होगा सुबह देखा जाएगा।
खा पीकर हम कमरे में आकर, कुछ उस गेस्ट हाउस के और कुछ अपने साथ लाए कंबलों को ओढकर चार बजे का अलार्म लगा कर सो गए। मुझे नींद नहीं आ रही थी अत: मैंने टाइम पास करने कॆ लिये खिड़की से बाहर  झांका, बाहर भी पुरी तरह अन्धकार फ़ैला हुआ था और दुर दुर तक रोशनी का कोइ नाम निशान नहीं था। रात भर बारिश होती रही…. बारीश की बुंदें टीन की छत पर गिर कर शोर कर रहीं थीं, कुछ तो बाहर पसरा अंधकार, कुछ बारिश की अवाज़ें और नई तथा सुनसान जगह। हममें से कोई भी रात को ठीक से सो नहीं पाया। हमने रात में ही निश्चय कर लिया था की बच्चों को सुबह जल्दी नहीं उठाएंगे हम दोनों ही अभिषेक करके आ जाएंगे और बच्चों को लौटते समय दर्शन करवा देंगे।
सुबह ४.३० बजे अलार्म ने अपना कर्तव्य निभाया, और हम दोनों भी जैसे उसके बजने का ही इन्तज़ार कर रहे थे। हम दोनों जागते ही एक दुसरे का चेहरा देखने लगे….क्या होगा? कैसे होगा? बाहर रात भर से बारिश हो रही है और अभी भी बारिश अनवरत जारी है, पुरे माहौल में ठंडक फ़ैली हुई है, सन्नाटा तथा अंधकार पसरा हुआ है, गर्म पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, नहाएंगे कैसे? और ऐसे कई प्रश्न हम दोनों के दिमाग में चल रहे थे।
मेरा मन थोड़ा डांवाडोल हो रहा था, लेकिन कविता ने माहौल की नज़ाकत को समझा और मुझे समझाया की हम इतनी दूर सावन के महीने में यहां क्यों आये हैं? वो भी इतनी मुश्किलों को झेलते हुए, तो फ़िर ठंड और ठंडे पानी से क्या डरना, और रोज़ तो इस तरह की परिस्थितीयां नहीं बनतीं, थोड़ी सी तकलिफ़ के कारण क्या अभिषेक नहीं करेंगे? बस मेरे लिये इतना पर्याप्त था, और हम दोनों एक झटके में बिस्तर से उठ खड़े हुए।
और फिर आगे का हाल तो क्या बताउं…हम लोग आवश्यक सामान लेकर किसी योद्धा के समान निचे आ गये, निचे बाथरुम के नाम पर एक कमरा था जिसमें दरवाज़ा नहीं था और हां लाईट भी नहीं, अंधेरे के कारण कुछ दिख नहीं रहा था और बारिश लगातार हो रही थी, मग नहीं दिखाई दिया तो बरसते पानी में बाल्टी उठाई और ओम नम: शिवाय के घोष के साथ बर्फ़ जैसे ठंडे पानी की बाल्टी को अपने शरीर पर उंढेल लिया……….और इस तरह हमारा स्नान हो गया, कमरे में जाकर तैयार होकर कमरे की कुंडी लगाकर हम मंदिर की ओर भागे।
मंदिर में पंडित जी हमारा इन्तज़ार कर रहे थे, आज हमने भीमाशंकर जी के बिना कवच के दर्शन किए, स्पर्श किया, पुजन अभिषेक किया। अभिषेक कुछ आधा घंटा चला, और फ़िर हम कमरे में आ गए , बच्चों को जगाया, तैयार किया और सामान वगैरह पैक करके कमरा खाली करके मंदिर पहुंच गए। अभी भी बारीश हो रही थी और कोहरा छाया हुआ था। बच्चों को भगवान के दर्शन करवाए, हमने भी किये, मंदिर के फोटो खिंचे, जो की कोहरे की वजह से बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं आ रहे थे।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
कोहरा, मंदिर और हम
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
मंदिर
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
न मैं दिखाई दे रहा हुं न मंदिर…फ़िर भी देख लिजिये.
और अब हम पुन: बारिश में भीगते हुए, कोहरे से भिड़ते हुए बस स्टाप की ओर बढ चले, रास्ते में एक नाश्ते की दुकान से नाश्ता किया और कुछ ही कदमों का सफ़र तय करके बस स्टाप पर पहुंच गए, जहां पर पुणे की बस खड़ी थी, इस बस से हमें मंचर तक जाना था मंचर से हमें नाशिक के लिये बस पकड़नी थी…..अपने अगले पड़ाव यानी त्र्यंबकेश्वर के लिये।
अपने ईष्टदेव के दर्शन की तृप्ति इस यात्रा की हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र उपलब्धि रही। बिना माँगी सलाह यह है कि यदी आप में श्रद्धा और भक्ती की थोड़ी सी भी कमी है तो यहाँ पहुँचने से पहले लौटने की चिन्ता और व्यवस्था अवश्य कर लें, क्योंकी यह श्रद्धा का परिक्षा केंद्र है…..एग्ज़ाम सेंटर।
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
लौटते समय भी कोहरा
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
अलवीदा भीमाशंकर ..
OLYMPUS DIGITAL CAMERA
मंचर तक इसी बस में जाना है….
अगली तथा अन्तिम पोस्ट में मेरे साथ त्र्यंबकेश्वर तथा शिर्डी चलने के लिये तैयार रहीयेगा….अगले संडे….तब तक के लिये हैप्पी घुमक्कड़ी………
————————————————————————————————————————————-
कुछ जानकारी भीमाशंकर के बारे में, आवश्यक समझें हो तो पढ लीजियेगा:
भीमाशंकर मंदिर महाराष्ट्र के भोरगिरि गांव जो की खेड़ तालुका से 50 कि.मि. उत्तर-पश्चिम तथा पुणे से 110 कि.मी. में स्थित है। यह पश्चिमी घाट के सह्याद्रि पर्वत पर 3,250 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहीं से भीमा नदी भी निकलती है जो की दक्षिण पश्चिम दिशा में बहती हुई आंध्रप्रदेश के रायचूर जिले में कृष्णा नदी से जा मिलती है। यहां भगवान शिव के भारत में पाए जाने वाले बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग है।
आप यहां सड़क और रेल मार्ग के जरिए आसानी से पहुंच सकते हैं। पुणे के शिवाजीनगर बस स्थानक से एमआरटीसी की सरकारी बसें रोजाना सुबह 5 बजे से शाम 4 बजे तक प्रायः हर घण्टे में भीमाशंकर के लिए मिलती हैं जिन्हें पकड़कर आप आसानी से भीमशंकर मंदिर तक पहुंच सकते हैं किन्तु लौटते समय अन्तिम बस (भीमा शंकर से) शाम 6 बजे है। शिवाजी नगर बस स्थानक के पास से ही प्रायवेट टैक्सियाँ भी मिलती हैं लेकिन उनकी नियमितता  निश्चित नहीं है। महाशिवरात्रि या प्रत्येक माह में आने वाली शिवरात्रि को यहां पहुंचने के लिए विशेष बसों का प्रबन्ध भी किया जाता है। ।
भीमाशंकर मंदिर नागर शैली की वास्तुकला में बना एक प्राचीन और नई संरचनाओं का सम्मिश्रण है। इस मंदिर से प्राचीन विश्वकर्मा वास्तुशिल्पियों की कौशल श्रेष्ठता का पता चलता है। इस सुंदर मंदिर का शिखर नाना फड़नवीस द्वारा 18वीं सदी में बनाया गया था। कहा जाता है कि महान मराठा शासक शिवाजी ने इस मंदिर की पूजा के लिए कई तरह की सुविधाएं प्रदान की। मन्दिर काफी पुराना है। मन्दिर का प्रांगण भव्य और लम्बा-चौड़ा नहीं है और न ही मन्दिर का मण्डप। सब कुछ मझौले आकार का।
गर्भगृह में जन सामान्य का प्रवेश वर्जित है। सनातनधर्मियों के तमाम तीर्थ स्थानों की तरह यहाँ भी शिव लिंग के चित्र लेना निषेधित है। गर्भगृह के बाहर, एक दर्पण लगाकर ऐसी व्यवस्था की गई है कि मण्डप में खड़े रहकर आप शिवलिंग के दर्शन कर सकें। मन्दिर का रख-रखाव और साफ-सफाई ठीक-ठाक है।

3 comments:

  1. बहुत बढिया व आनंददायक यात्रा थी मुकेश जी

    ReplyDelete
  2. 2nd October 2015 को मैंने भी भिमाशंकर की यात्रा कर ली अापकी पोस्ट पढ़ कर याद ताजा हो गई।

    ReplyDelete

अनुरोध,
पोस्ट पढने के बाद अपनी टिप्पणी (कमेन्ट) अवश्य दें, ताकि हमें अपने ब्लॉग को निरंतर सुधारने में आपका सहयोग प्राप्त हो.