इंदौर दर्शन की इस श्रंखला की पिछली कड़ी में मैंने आपलोगों का इंदौर
शहर से एक छोटा सा परिचय करवाया था. ट्रेज़र आईलेंड मॉल में कुछ पांच छः
घंटे बिताने, कुछ शॉपिंग करने एवं फिल्म देखने के बाद अब हमने रुख किया
इंदौर की सबसे बड़ी पहचान यानी राजवाड़ा की ओर.
राजवाड़ा को इंदौर की आन बान और शान कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा. इंदौर शहर के इतिहास को अपनी स्मृति में संजोये करीब ढाई सौ सालों से एक इतिहास पुरुष की तरह खड़ा राजवाड़ा, इंदौर के गौरवशाली इतिहास का परिचायक है.
राजवाड़ा को इंदौर का शॉपिंग हब कहा जा सकता है, इसके चारों तरफ हर तरह की खरीददारी के लिए सैकड़ों दुकाने फैली हुई हैं. राजवाड़ा से ही लगी हैं इंदौर की एक और ऐतिहासिक विरासत कृष्णपुरा की छत्रियां. वैसे तो हर बार जब भी इंदौर आते हैं तो बस जल्दी जल्दी अपना काम निबटा कर घर लौट जाते हैं और इंदौर के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए कभी समय ही नहीं निकाल पाते हैं अतः आज हम सोचकर ही आये थे की इंदौर के कुछ दर्शनीय स्थलों की सैर आज कर ही ली जाए अतः सबसे पहले हम पहुंचे कृष्णपुरा की छत्रियों पर और वहां कुछ समय बिताया, आइये आपलोगों को भी बताती हूँ इन स्मारकों के बारे में.
कृष्णपुरा की छत्रियां (Cenotaphs), इंदौर के होलकर राजवंश के पूर्व शासकों की समाधियाँ हैं. ये छत्रियां इंदौर की खान नदी के किनारे पर निर्मित हैं तथा वास्तुकला की दृष्टि से एक उत्कृष्ट निर्माण हैं. सैकड़ों वर्षों से विद्यमान ये छत्रियां होलकर मराठा राजवंश के गौरवशाली ईतिहास की द्यौतक हैं. मराठा वास्तुकला शैली में निर्मित ये छत्रियां पर्यटकों को बहुत लुभाती हैं तथा आमंत्रित करती हैं. ये छत्रियां मालवा की शासिका महारानी कृष्णाबाई, महाराजा तुकोजीराव तथा महाराजा शिवाजीराव की समाधियों पर निर्मित हैं तथा इन्हीं शासकों को समर्पित हैं. इन छत्रियों में सभाग्रह तथा गर्भगृह हैं, गर्भगृह में इन शासकों की मूर्तियों के साथ अब हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी स्थापित कर दी गई हैं.
इन छत्रियों के बारे में अधिक जानकारी के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के इस बोर्ड का चित्र लगा रही हूँ आप खुद ही पढ़ लीजिये.
कुछ देर यहाँ बिताने तथा पास ही में स्थिक पार्किंग स्थल में कार पार्क करने के बाद हम लोग पैदल ही राजवाड़ा की ओर चल पड़े, वैसे राजवाड़ा यहाँ से पैदल दुरी पर ही स्थित है और जैसे मैंने बताया की राजवाड़ा के आसपास का बाज़ार इंदौर में शॉपिंग के लिए सबसे मशहूर जगह है अतः यहाँ भीड़ भी बहुत ज्यादा रहती है.
वर्षों से इंदौर तथा इसके आसपास रहने तथा अनगिनत बार राजवाड़ा के मार्केट में शॉपिंग के लिए आते रहने के बावजूद हमने आज तक कभी राजवाड़ा को एक पर्यटक की दृष्टि से नहीं देखा था, वो कहते हैं ना दीया तले अँधेरा……लेकिन आज हम घर से सोच कर ही निकले थे की आज इंदौर के कुछ हिस्से को ही सही लेकिन एक पर्यटक की नज़र से देखना है, तो बस कृष्णपुरा की छत्रियों को देखने के बाद अब हमारा अगला पड़ाव था राजवाड़ा को देखना तथा यहाँ के इतिहास को समझना.
ऐतिहासिक इमारतों को देखना तथा इनके इतिहास को समझना हम लोगों के लिए तो रुचिकर होता है लेकिन बच्चों को ये सब उबाऊ ही लगता है, खासकर शिवम् की उम्र के बच्चों को. जैसे ही हम छत्रियों के इन स्मारकों को देखने के बाद यहाँ से निकले शिवम् ने चैन की सांस ली. बहुत देर से महाशय के पेट में कुछ गया नहीं था अतः जैसे ही सामने एक नारियल पानी वाला दिखाई दिया, साहब दौड़ पड़े उस तरफ और उसके पीछे पीछे हम भी चल दिए. नारियल पानी उदरस्थ करने के बाद अब छोटे साहब थोडा कम्फर्टेबल महसूस कर रहे थे.
पहले कभी राजवाड़ा को अन्दर से देखना निःशुल्क हुआ करता था लेकिन अब यहाँ ए.एस.आई. के द्वारा 5/- प्रवेश शुल्क लगा दिया गया है, और फोटोग्राफी या विडियो ग्राफी करनी हो तो बीस रुपये अलग से. हमें चूँकि यहाँ तस्वीरें खींचनी थीं अतः हमने फोटोग्राफी का चार्ज भी जमा करवा दिया, मुकेश का कहना था की शायद हमने इससे पहले कभी किसी पर्यटन स्थल पर फोटोग्राफी के लिए शुल्क नहीं जमा करवाया अतः आज हम बिना किसी के डर के खुले हाथों से और मस्ती में खूब फ़ोटोज़ खिंच रहे थे.
जिस तरह से चारमिनार हैदराबाद की, गेटवे ऑफ़ इंडिया तथा ताज महल होटल मुंबई की तथा इंडिया गेट दिल्ली की पहचान हैं उसी तरह राजवाड़ा इंदौर का प्रतिनिधित्व करता है.राजवाड़ा होलकर शासकों का ऐतिहासिक महल तथा निवास स्थान था तथा इसका निर्माण सन 1747 में होलकर वंश के संस्थापक श्रीमंत मल्हार राव होलकर ने करवाया था. वे इस महल का उपयोग अपने निवास स्थान के रूप में करते थे तथा सन 1880 तक वे यहीं रहे थे. यह विशालकाय तथा दर्शनीय सात मंजिला भवन शहर के बीचोंबीच तथा शहर के एक व्यस्ततम भाग खजूरी बाज़ार में स्थित है. इंदौर का यह भाग आजकल पुराना इंदौर (जुनी इंदौर) कहलाता है. इसके ठीक सामने एक सुंदर सा बगीचा है जिसके बिच में महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर की प्रतिमा स्थापित है. प्रवेश द्वार की ओर से देखें तो यह भवन किसी मायावी जादूगर के निषिद्ध दुर्ग के द्वार के सामान दिखाई देता है. यह राजवाड़ा होलकर वंश के गौरव का जीता जगता उदाहरण है.
इसके निर्माण में मराठा, मुग़ल तथा फ्रेंच वास्तुकला शैली का मिला जुला स्वरुप दिखाई देता है. राजवाड़ा के निर्माण के अधिकतर भाग में लकड़ी का उपयोग किये जाने की वजह से अपने इतिहास में यह अब तक तीन बार जल चूका है. आखरी बार यह सन 1984 में आग की लपटों की भेंट चढ़ा था जिसमें राजवाड़ा को अब तक का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था, तथा अब इसे एक गार्डन का रूप दे दिया गया था. सन 2006 में इंदौर की तत्कालीन महारानी उषादेवी होलकर ने इसका पुनर्निर्माण करवाने की योजना बनाई तथा उनके प्रयासों से सन 2007 में यह फिर से बन कर खड़ा हो गया. यह भारत का पहला ऐतिहासिक भवन है जिसका पुनर्निर्माण उसी सामग्री, उसी शैली तथा उसी पद्धति से किया गया है जिससे वह अपने वास्तविक स्वरुप में पहली बार बनाया गया था.
वैसे तो बारिश का मौसम था, लेकिन अभी इधर मानसून का आगमन नहीं हुआ था और आज तो सुबह से जब हम घर से निकले थे तब ऐसा कुछ लग नहीं रहा था की बारिश भी हो सकती है अतः हम बारिश से बचने के किसी भी साधन जैसे छाता या रेनकोट आदि साथ लेकर नहीं आये थे, लेकिन आज हमें यहीं राजवाड़ा के करीब के मार्केट से ये सब चीजें खरीदनी ही थीं, क्योंकि आज नहीं तो कल बारिश तो आनी ही थी अतः हमने राजवाड़ा में प्रवेश से पहले ही दोनों बच्चों के लिए रेनकोट एवं हमारे लिए छाते आदि ख़रीदे थे लेकिन हमें ये कतई पता नहीं था की आज ही इन चीजों की ज़रूरत पड़ने वाली है.
राजवाड़ा के बहार ही खड़े थे एवं प्रवेश की टिकिट खरीद रहे थे की तभी मौसम में अप्रत्याशित बदलाव होने लगे, आकाश में बादल छाने लगे एवं फिजां में ठंडी ठंडी हवाएं ऐसे चलने लगी जैसे ये मेघों का सन्देश लेकर आई हों. अचानक बूंदाबांदी शुरू हो गई और थोड़ी ही देर में तेज बारिश होने लगी. हम बारिश तथा ठण्ड से बचने के लिए इधर उधर छुपने लगे तभी हमें ख्याल आया की हमने तो अभी अभी नए छाते एवं रेनकोट ख़रीदे हैं, बस फिर क्या था आनन फानन में बैग खोला और नया छाता और रेनकोट निकाले. बड़ा अच्छा लगा की नई नई चीजों का मुहूर्त घर ले जाने से पहले ही हो गया.
कुछ देर राजवाड़ा के अन्दर भूतल पर घुमने, देखने तथा तस्वीरें लेने के बाद हम सीढियाँ चढ़ कर प्रथम तल पर पहुंचे जहां पर लम्बे चौड़े गलियारे तथा कई सारे झरोखे थे. राजवाड़ा के ठीक पीछे की तरफ इसी भवन से लगा, मल्हार राव होलकर तथा उनके परिवार का निवास स्थान था, तथा यहीं पर इसी परिसर में होलकर राजवंश के कुलदेवता मल्हारी मार्तंड का मंदिर भी है. राजवाड़ा के उपरी हिस्से का अवलोकन करने के बाद हमने उन्हीं सीढियों से निचे उतर कर पीछे की ओर स्थित प्रवेश द्वार से मुख्य महल में प्रवेश किया. इस महल को आजकल एक छोटे से संग्रहालय का रूप दे दिया गया है जहाँ इंदौर की प्रसिद्द महारानी पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई होलकर के जीवन से सम्बंधित जानकारी देते विस्तृत चित्रों की एक विशाल प्रदर्शनी लगी हुई है.
देवी अहिल्या बाई के बारे में बताये बिना इंदौर के बारे में कुछ लिखना अधुरा ही होगा. देवी अहिल्या बाई इंदौर के सारे शासकों में सबसे ज्यादा प्रसिद्द, सम्मानित तथा पूजनीय थीं, आज के आधुनिक इंदौर में भी देवी अहिल्याबाई की स्मृति स्वरुप यहाँ के अंतरराष्ट्रीय विमान तल का नाम देवी अहिल्या बाई होलकर इंटर्नेशनल एयरपोर्ट (DABHI) रखा गया है, तथा यहाँ के विश्वविद्यालय का नाम भी देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (DAVV) इंदौर है.
मैं शुरू से ही अपने जीवन का आदर्श देवी अहिल्याबाई होलकर को ही मानती हूँ. उनमें कई सारे ऐसे गुण थे जो उन्हें एक अलग पहचान देते हैं. वे एक बहुत बड़ी शिव भक्त होने के साथ ही एक कुशल शासक भी थीं. आइये जानते हैं देवी अहिल्या बाई के बारे में.
महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थीं. जन्म इनका सन् 1725 में हुआ था और देहांत 13 अगस्त 1795 को; तिथि उस दिन भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी थ. अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं, उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे आश्चर्य होता है.
देवी अहिल्या बाई के जीवन के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस लिंक को क्लिक करें – http://en.wikipedia.org/wiki/Ahilyabai_Holkar
देवी अहिल्या बाई के द्वारा जनहित में किये गए कार्यों तथा धार्मिक कार्यों एवं मदिरों के निर्माण एवं पुनरोद्धार की संपूर्ण जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें – http://en.wikipedia.org/wiki/Ahilyabai_Holkar#Works_throughout_India
दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ, उनतीस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गईं. पति का स्वभाव चंचल और उग्र था, वह सब उन्होंने सहा. फिर जब बयालीस-तैंतालीस वर्ष की थीं, पुत्र मालेराव का देहांत हो गया. जब अहिल्याबाई की आयु बासठ वर्ष के लगभग थी, उनका एकमात्र वारिस दौहित्र नत्थू चल बसा. चार वर्ष बाद दामाद यशवंतराव फणसे न रहा और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई. दूर के संबंधी तुकोजीराव के पुत्र मल्हारराव पर उनका स्नेह था; सोचती थीं कि आगे चलकर यही शासन, व्यवस्था, न्याय औऱ प्रजारंजन की डोर सँभालेगा; पर वह अंत-अंत तक उन्हें दुःख देता रहा.
अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं-मरते दम तक.
अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी. इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था. जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी, शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे, प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अंधविश्वासों, भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था, न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया वह चिरस्मरणीय है. इंदौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव होता चला आता है।
अहिल्याबाई के संबंध में दो प्रकार की विचारधाराएँ रही हैं एक में उनको देवी के अवतार की पदवी दी गई है, दूसरी में उनके अति उत्कृष्ट गुणों के साथ अंधविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति श्रद्धा को भी प्रकट किया है. वह अँधेरे में प्रकाश-किरण के समान थीं, जिसे अँधेरा बार-बार ग्रसने की चेष्टा करता रहा. अपने उत्कृष्ट विचारों एवं नैतिक आचरण के चलते ही समाज में उन्हें देवी का दर्जा मिला.
राज्य की चिंता का भार और उस पर प्राणों से भी प्यारे लोगों का वियोग, इस सारे शोक-भार को अहिल्याबाई का शरीर अधिक नहीं संभाल सका और 13 अगस्त सन् 1795 को उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई. अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी इन्दौर की गद्दी पर बैठा.
इंदौर राजवाड़ा की इस यादगार सैर के बाद शाम करीब छः बजे हम लोग इंदौर से अपने घर के लिए रवाना हो गए. आज के लिए बस इतना ही. अगली पोस्ट में आपको लेकर चलूंगी इंदौर के कुछ और दर्शनीय स्थलों की सैर पर………….आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
राजवाड़ा को इंदौर की आन बान और शान कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा. इंदौर शहर के इतिहास को अपनी स्मृति में संजोये करीब ढाई सौ सालों से एक इतिहास पुरुष की तरह खड़ा राजवाड़ा, इंदौर के गौरवशाली इतिहास का परिचायक है.
राजवाड़ा को इंदौर का शॉपिंग हब कहा जा सकता है, इसके चारों तरफ हर तरह की खरीददारी के लिए सैकड़ों दुकाने फैली हुई हैं. राजवाड़ा से ही लगी हैं इंदौर की एक और ऐतिहासिक विरासत कृष्णपुरा की छत्रियां. वैसे तो हर बार जब भी इंदौर आते हैं तो बस जल्दी जल्दी अपना काम निबटा कर घर लौट जाते हैं और इंदौर के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए कभी समय ही नहीं निकाल पाते हैं अतः आज हम सोचकर ही आये थे की इंदौर के कुछ दर्शनीय स्थलों की सैर आज कर ही ली जाए अतः सबसे पहले हम पहुंचे कृष्णपुरा की छत्रियों पर और वहां कुछ समय बिताया, आइये आपलोगों को भी बताती हूँ इन स्मारकों के बारे में.
कृष्णपुरा की छत्रियां (Cenotaphs), इंदौर के होलकर राजवंश के पूर्व शासकों की समाधियाँ हैं. ये छत्रियां इंदौर की खान नदी के किनारे पर निर्मित हैं तथा वास्तुकला की दृष्टि से एक उत्कृष्ट निर्माण हैं. सैकड़ों वर्षों से विद्यमान ये छत्रियां होलकर मराठा राजवंश के गौरवशाली ईतिहास की द्यौतक हैं. मराठा वास्तुकला शैली में निर्मित ये छत्रियां पर्यटकों को बहुत लुभाती हैं तथा आमंत्रित करती हैं. ये छत्रियां मालवा की शासिका महारानी कृष्णाबाई, महाराजा तुकोजीराव तथा महाराजा शिवाजीराव की समाधियों पर निर्मित हैं तथा इन्हीं शासकों को समर्पित हैं. इन छत्रियों में सभाग्रह तथा गर्भगृह हैं, गर्भगृह में इन शासकों की मूर्तियों के साथ अब हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी स्थापित कर दी गई हैं.
इन छत्रियों के बारे में अधिक जानकारी के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के इस बोर्ड का चित्र लगा रही हूँ आप खुद ही पढ़ लीजिये.
कुछ देर यहाँ बिताने तथा पास ही में स्थिक पार्किंग स्थल में कार पार्क करने के बाद हम लोग पैदल ही राजवाड़ा की ओर चल पड़े, वैसे राजवाड़ा यहाँ से पैदल दुरी पर ही स्थित है और जैसे मैंने बताया की राजवाड़ा के आसपास का बाज़ार इंदौर में शॉपिंग के लिए सबसे मशहूर जगह है अतः यहाँ भीड़ भी बहुत ज्यादा रहती है.
वर्षों से इंदौर तथा इसके आसपास रहने तथा अनगिनत बार राजवाड़ा के मार्केट में शॉपिंग के लिए आते रहने के बावजूद हमने आज तक कभी राजवाड़ा को एक पर्यटक की दृष्टि से नहीं देखा था, वो कहते हैं ना दीया तले अँधेरा……लेकिन आज हम घर से सोच कर ही निकले थे की आज इंदौर के कुछ हिस्से को ही सही लेकिन एक पर्यटक की नज़र से देखना है, तो बस कृष्णपुरा की छत्रियों को देखने के बाद अब हमारा अगला पड़ाव था राजवाड़ा को देखना तथा यहाँ के इतिहास को समझना.
ऐतिहासिक इमारतों को देखना तथा इनके इतिहास को समझना हम लोगों के लिए तो रुचिकर होता है लेकिन बच्चों को ये सब उबाऊ ही लगता है, खासकर शिवम् की उम्र के बच्चों को. जैसे ही हम छत्रियों के इन स्मारकों को देखने के बाद यहाँ से निकले शिवम् ने चैन की सांस ली. बहुत देर से महाशय के पेट में कुछ गया नहीं था अतः जैसे ही सामने एक नारियल पानी वाला दिखाई दिया, साहब दौड़ पड़े उस तरफ और उसके पीछे पीछे हम भी चल दिए. नारियल पानी उदरस्थ करने के बाद अब छोटे साहब थोडा कम्फर्टेबल महसूस कर रहे थे.
पहले कभी राजवाड़ा को अन्दर से देखना निःशुल्क हुआ करता था लेकिन अब यहाँ ए.एस.आई. के द्वारा 5/- प्रवेश शुल्क लगा दिया गया है, और फोटोग्राफी या विडियो ग्राफी करनी हो तो बीस रुपये अलग से. हमें चूँकि यहाँ तस्वीरें खींचनी थीं अतः हमने फोटोग्राफी का चार्ज भी जमा करवा दिया, मुकेश का कहना था की शायद हमने इससे पहले कभी किसी पर्यटन स्थल पर फोटोग्राफी के लिए शुल्क नहीं जमा करवाया अतः आज हम बिना किसी के डर के खुले हाथों से और मस्ती में खूब फ़ोटोज़ खिंच रहे थे.
जिस तरह से चारमिनार हैदराबाद की, गेटवे ऑफ़ इंडिया तथा ताज महल होटल मुंबई की तथा इंडिया गेट दिल्ली की पहचान हैं उसी तरह राजवाड़ा इंदौर का प्रतिनिधित्व करता है.राजवाड़ा होलकर शासकों का ऐतिहासिक महल तथा निवास स्थान था तथा इसका निर्माण सन 1747 में होलकर वंश के संस्थापक श्रीमंत मल्हार राव होलकर ने करवाया था. वे इस महल का उपयोग अपने निवास स्थान के रूप में करते थे तथा सन 1880 तक वे यहीं रहे थे. यह विशालकाय तथा दर्शनीय सात मंजिला भवन शहर के बीचोंबीच तथा शहर के एक व्यस्ततम भाग खजूरी बाज़ार में स्थित है. इंदौर का यह भाग आजकल पुराना इंदौर (जुनी इंदौर) कहलाता है. इसके ठीक सामने एक सुंदर सा बगीचा है जिसके बिच में महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर की प्रतिमा स्थापित है. प्रवेश द्वार की ओर से देखें तो यह भवन किसी मायावी जादूगर के निषिद्ध दुर्ग के द्वार के सामान दिखाई देता है. यह राजवाड़ा होलकर वंश के गौरव का जीता जगता उदाहरण है.
इसके निर्माण में मराठा, मुग़ल तथा फ्रेंच वास्तुकला शैली का मिला जुला स्वरुप दिखाई देता है. राजवाड़ा के निर्माण के अधिकतर भाग में लकड़ी का उपयोग किये जाने की वजह से अपने इतिहास में यह अब तक तीन बार जल चूका है. आखरी बार यह सन 1984 में आग की लपटों की भेंट चढ़ा था जिसमें राजवाड़ा को अब तक का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था, तथा अब इसे एक गार्डन का रूप दे दिया गया था. सन 2006 में इंदौर की तत्कालीन महारानी उषादेवी होलकर ने इसका पुनर्निर्माण करवाने की योजना बनाई तथा उनके प्रयासों से सन 2007 में यह फिर से बन कर खड़ा हो गया. यह भारत का पहला ऐतिहासिक भवन है जिसका पुनर्निर्माण उसी सामग्री, उसी शैली तथा उसी पद्धति से किया गया है जिससे वह अपने वास्तविक स्वरुप में पहली बार बनाया गया था.
वैसे तो बारिश का मौसम था, लेकिन अभी इधर मानसून का आगमन नहीं हुआ था और आज तो सुबह से जब हम घर से निकले थे तब ऐसा कुछ लग नहीं रहा था की बारिश भी हो सकती है अतः हम बारिश से बचने के किसी भी साधन जैसे छाता या रेनकोट आदि साथ लेकर नहीं आये थे, लेकिन आज हमें यहीं राजवाड़ा के करीब के मार्केट से ये सब चीजें खरीदनी ही थीं, क्योंकि आज नहीं तो कल बारिश तो आनी ही थी अतः हमने राजवाड़ा में प्रवेश से पहले ही दोनों बच्चों के लिए रेनकोट एवं हमारे लिए छाते आदि ख़रीदे थे लेकिन हमें ये कतई पता नहीं था की आज ही इन चीजों की ज़रूरत पड़ने वाली है.
राजवाड़ा के बहार ही खड़े थे एवं प्रवेश की टिकिट खरीद रहे थे की तभी मौसम में अप्रत्याशित बदलाव होने लगे, आकाश में बादल छाने लगे एवं फिजां में ठंडी ठंडी हवाएं ऐसे चलने लगी जैसे ये मेघों का सन्देश लेकर आई हों. अचानक बूंदाबांदी शुरू हो गई और थोड़ी ही देर में तेज बारिश होने लगी. हम बारिश तथा ठण्ड से बचने के लिए इधर उधर छुपने लगे तभी हमें ख्याल आया की हमने तो अभी अभी नए छाते एवं रेनकोट ख़रीदे हैं, बस फिर क्या था आनन फानन में बैग खोला और नया छाता और रेनकोट निकाले. बड़ा अच्छा लगा की नई नई चीजों का मुहूर्त घर ले जाने से पहले ही हो गया.
कुछ देर राजवाड़ा के अन्दर भूतल पर घुमने, देखने तथा तस्वीरें लेने के बाद हम सीढियाँ चढ़ कर प्रथम तल पर पहुंचे जहां पर लम्बे चौड़े गलियारे तथा कई सारे झरोखे थे. राजवाड़ा के ठीक पीछे की तरफ इसी भवन से लगा, मल्हार राव होलकर तथा उनके परिवार का निवास स्थान था, तथा यहीं पर इसी परिसर में होलकर राजवंश के कुलदेवता मल्हारी मार्तंड का मंदिर भी है. राजवाड़ा के उपरी हिस्से का अवलोकन करने के बाद हमने उन्हीं सीढियों से निचे उतर कर पीछे की ओर स्थित प्रवेश द्वार से मुख्य महल में प्रवेश किया. इस महल को आजकल एक छोटे से संग्रहालय का रूप दे दिया गया है जहाँ इंदौर की प्रसिद्द महारानी पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई होलकर के जीवन से सम्बंधित जानकारी देते विस्तृत चित्रों की एक विशाल प्रदर्शनी लगी हुई है.
देवी अहिल्या बाई के बारे में बताये बिना इंदौर के बारे में कुछ लिखना अधुरा ही होगा. देवी अहिल्या बाई इंदौर के सारे शासकों में सबसे ज्यादा प्रसिद्द, सम्मानित तथा पूजनीय थीं, आज के आधुनिक इंदौर में भी देवी अहिल्याबाई की स्मृति स्वरुप यहाँ के अंतरराष्ट्रीय विमान तल का नाम देवी अहिल्या बाई होलकर इंटर्नेशनल एयरपोर्ट (DABHI) रखा गया है, तथा यहाँ के विश्वविद्यालय का नाम भी देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (DAVV) इंदौर है.
मैं शुरू से ही अपने जीवन का आदर्श देवी अहिल्याबाई होलकर को ही मानती हूँ. उनमें कई सारे ऐसे गुण थे जो उन्हें एक अलग पहचान देते हैं. वे एक बहुत बड़ी शिव भक्त होने के साथ ही एक कुशल शासक भी थीं. आइये जानते हैं देवी अहिल्या बाई के बारे में.
महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थीं. जन्म इनका सन् 1725 में हुआ था और देहांत 13 अगस्त 1795 को; तिथि उस दिन भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी थ. अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं, उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे आश्चर्य होता है.
देवी अहिल्या बाई के जीवन के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस लिंक को क्लिक करें – http://en.wikipedia.org/wiki/Ahilyabai_Holkar
देवी अहिल्या बाई के द्वारा जनहित में किये गए कार्यों तथा धार्मिक कार्यों एवं मदिरों के निर्माण एवं पुनरोद्धार की संपूर्ण जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें – http://en.wikipedia.org/wiki/Ahilyabai_Holkar#Works_throughout_India
दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ, उनतीस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गईं. पति का स्वभाव चंचल और उग्र था, वह सब उन्होंने सहा. फिर जब बयालीस-तैंतालीस वर्ष की थीं, पुत्र मालेराव का देहांत हो गया. जब अहिल्याबाई की आयु बासठ वर्ष के लगभग थी, उनका एकमात्र वारिस दौहित्र नत्थू चल बसा. चार वर्ष बाद दामाद यशवंतराव फणसे न रहा और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई. दूर के संबंधी तुकोजीराव के पुत्र मल्हारराव पर उनका स्नेह था; सोचती थीं कि आगे चलकर यही शासन, व्यवस्था, न्याय औऱ प्रजारंजन की डोर सँभालेगा; पर वह अंत-अंत तक उन्हें दुःख देता रहा.
अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्यक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं-मरते दम तक.
अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी. इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों देखा ही कहाँ था. जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी, शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे, प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अंधविश्वासों, भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था, न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया वह चिरस्मरणीय है. इंदौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव होता चला आता है।
अहिल्याबाई के संबंध में दो प्रकार की विचारधाराएँ रही हैं एक में उनको देवी के अवतार की पदवी दी गई है, दूसरी में उनके अति उत्कृष्ट गुणों के साथ अंधविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति श्रद्धा को भी प्रकट किया है. वह अँधेरे में प्रकाश-किरण के समान थीं, जिसे अँधेरा बार-बार ग्रसने की चेष्टा करता रहा. अपने उत्कृष्ट विचारों एवं नैतिक आचरण के चलते ही समाज में उन्हें देवी का दर्जा मिला.
राज्य की चिंता का भार और उस पर प्राणों से भी प्यारे लोगों का वियोग, इस सारे शोक-भार को अहिल्याबाई का शरीर अधिक नहीं संभाल सका और 13 अगस्त सन् 1795 को उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई. अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी इन्दौर की गद्दी पर बैठा.
इंदौर राजवाड़ा की इस यादगार सैर के बाद शाम करीब छः बजे हम लोग इंदौर से अपने घर के लिए रवाना हो गए. आज के लिए बस इतना ही. अगली पोस्ट में आपको लेकर चलूंगी इंदौर के कुछ और दर्शनीय स्थलों की सैर पर………….आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
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