वैसे तो आए दिन इंदौर किसी न किसी काम से आना जाना लगा ही रहता है लेकिन
अपना ही शहर होने की वजह से हमने कभी भी इसे पर्यटन या घुमक्कड़ी
की दृष्टि से नहीं देखा, लेकिन अब इंदौर को अपने घुमक्कड़ साथियों के समक्ष
प्रस्तुत करने का विचार मन में आने के बाद पिछली बार हम समय निकल कर विशेष
रूप से इंदौर घुमने के विचार से आये थे और उसे मैं अपनी पिछली दो पोस्ट्स
में आपलोगों को दिखा ही चुकी हूँ.
पहली बार इंदौर को एक पर्यटक की नज़र से देखना और तस्वीरें लेना हमारे लिए एकदम नया अनुभव था. लेकिन जो कुछ भी हो हमें अपने शहर में घुमक्कड़ी करने में बड़ा मज़ा आया.
अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है हमें अपने अध्यात्मिक गुरु दंडीस्वामी श्री मोहनानंद सरस्वती जी से भेंट करने के लिए उज्जैन जाना था. उज्जैन जाना और गुरूजी से मिलकर आना कुछ पांच छः घंटे के काम था तो हमने सोचा की क्यों न थोडा समय बचाकर एक बार फिर इंदौर के कुछ अन्य दर्शनीय स्थलों की सैर की जाए, और बस हमारा प्लान बन गया.
इधर बहुत दिनों से सुनने में आ रहा था की इंदौर में वैष्णो धाम नाम से एक नया मंदिर बना है जो की जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर की प्रतिकृति है तथा बहुत ही ख़ूबसूरत है, एकदम वैष्णो देवी मंदिर की ही तरह इस मंदिर के लिए यहाँ कृत्रिम गुफा बनायीं गई हैं आदि आदि………हमें अब तक वैष्णो देवी जाने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ है, तो हम बहुत दिनों से सोच रहे थे की इंदौर की वैष्णो देवी के मंदिर के ही दर्शन कर लिए जाएँ.
अब यहाँ संयोग ये हुआ की हमारे एक परिचित पंडित जी हैं जिन्होंने हमें गुरु जी से दीक्षा दिलवाई थी और इस तरह से वे हमारे गुरु भाई हुए, अब चूँकि हमें गुरूजी से मिलने उज्जैन जाना था वो भी अपनी कार से, तो हमने सोचा की क्यों न पंडित जी से पूछ लिया जाए शायद वे भी हमारे साथ गुरूजी से मिलने चल दें, तो मुकेश ने पंडित जी को फ़ोन लगाया और जाने के लिए पूछा और वे हमारे साथ जाने को राजी हो गए. जब हमने उनसे पूछा की हम उन्हें लेने के लिए कहाँ आयें तो उन्होंने हमें जानकारी दी की आजकल वे इंदौर में नए बने वैष्णो देवी मंदिर के मुख्य पुरोहित हैं तथा मंदिर केम्पस में ही रहते हैं, तो हमारी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा.
बहुत दिनों से इस मंदिर के दर्शनों के लिए सोच रहे थे और आज इतना अच्छा संयोग बन गया तो हमने सोचा की क्यों न सबसे पहले पंडित जी को मंदिर से ले लिया जाए इस तरह से मंदिर के दर्शन भी हो जायेंगे. बस फिर क्या था हमने कुछ लोगों से मंदिर के पते की जानकारी लेकर अपनी गाड़ी उस ओर घुमा दी.
इस मंदिर के बारे में ज्यादा कुछ जानकारी तो थी नहीं, बस इतना मालुम था की यह मंदिर वैष्णो देवी के किसी सिक्ख भक्त ने करोड़ों रुपयों की लागत से बनवाया है. हमने मंदिर पहुंचकर पार्किंग स्थल पर अपनी गाड़ी खड़ी कर दी और कुछ कदम पैदल चलकर मंदिर के करीब पहुंचे. जब हमने पहली बार मंदिर को बाहर से देखा तो हम सभी इस मंदिर की बाहरी सुन्दरता देखकर ही विस्मित हो गए. बड़े ही सुन्दर एवं अद्भुत तरीके से बनाया गया है यह मंदिर और इसकी बाहरी तथा आतंरिक सुन्दरता की वजह से इसकी लोकप्रियता इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ रही है.
सबसे पहले तो हमने मंदिर के सिक्योरिटी गार्ड से पंडित जी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया की वे हमें गर्भगृह में ही मिल जायेंगे. और बस हमने मंदिर के कोने पर ही बने प्रसाद विक्रय केंद्र से प्रसाद ख़रीदा और मंदिर में प्रवेश कर गए. जैसे ही हमने मंदिर में प्रवेश किया तो हमने लगा……..अरे ये तो हम साक्षात् माता वैष्णो देवी के दरबार में पहुँच गए हैं. हुबहू वैष्णो देवी मंदिर जैसा, पत्थरों तथा कृत्रिम चट्टानों से गुफा बनाकर करोड़ों की लगत से बनाए गए इस मंदिर को देखकर हमारी आँखें खुली की खुली रह गईं. हम तो ख़ुशी के मारे फुले नहीं समां रहे थे की हम बिना किसी जानकारी के इतने सुन्दर मंदिर में पहुँच गए.
जैसे जैसे हम मंदिर में आगे बढ़ते जा रहे थे आश्चर्य एवं विस्मय से हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे. बिलकुल किसी प्राकृतिक गुफा की तरह गोल मोल, टेढ़े मेढ़े, उबड़ खाबड़ घुमावदार रास्ते, घुप्प अँधेरा, कृत्रिम जंगली जानवर, कृत्रिम जंगली पेड़ पौधे और कई जगह तो रास्ते में गुफा इतनी संकरी की पूरी तरह से बैठकर या लेट कर ही निकला जा सकता था.
गुफा के रास्ते में एक दो जगह गहरी खाइयाँ, तथा झरने भी बनाये गए हैं………………घोर आश्चर्य, शहर के बीचोंबीच स्थित इस आश्चर्यजनक मंदिर में गुफा पार करने के दौरान करीब पंद्रह बीस मिनट के लिए आप किसी दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाते हैं. इस आश्चर्यजनक गुफानुमा रास्ते को पार करने के बाद थोड़ी सी रौशनी दिखाई देती है तथा कुछ आवाजें सुनाई देती हैं, और फिर कुछ ही पलों में हम पहुँच जाते हैं गर्भगृह में जहाँ बिलकुल वैष्णोदेवी मंदिर की तर्ज़ पर माता जी तीन पाषाण की पिंडियों के रूप में विराजित हैं. ये तीनों पिंडियाँ वैष्णोदेवी मंदिर कटरा से यहाँ लाई गई हैं.
और सोने पे सुहागा वाली बात यह थी की चूँकि हम इस मंदिर के मुख्य पुजारी के परिचित थे अतः हमने मंदिर में विशेष महत्त्व तथा सम्मान मिल रहा था. गर्भगृह में सबसे पहले माता के दर्शन करने के बाद हम पुजारी जी से मिले, तो उन्होंने कहा की आप लोग इत्मीनान से मंदिर के दर्शन कर लो तब तक मैं भी चलने के लिए तैयार होता हूँ.
इस बड़े से मंदिर परिसर में माता वैष्णो देवी के दर्शनों के बाद वापसी वाले रास्ते में और भी देवी देवताओं जैसे भोले बाबा, गणेश जी, दुर्गा माता, साईं बाबा अदि के भी मंदिर हैं. ये सब देखते देखते हम इतना खुश हो रहे थे की मैं उस ख़ुशी का बखान शब्दों में नहीं कर सकती. कहाँ तो हम महज पुजारी जी को रिसीव करने आये थे और कहाँ हमें इस अद्भुत मदिर के दर्शन मिल गए. मंदिर के अन्दर फोटोग्राफी तथा विडियो ग्राफी की अनुमति नहीं थी, अतः हम बस बाहर से ही कुछ तस्वीरें खिंच पाए.
हम सब मदिर को ऐसे निहार रहे थे जैसे हमें कोई कुबेर का गड़ा खजाना मिल गया हो, और हमें ऐसा लग रहा था की हम एक अलग ही दुनिया में आ गए हैं, साथ ही साथ हम यह भी सोच रहे थे की हम जैसे खोजी धार्मिक घुमक्कड़ों की नज़रों से इंदौर में ही स्थित इतनी सुन्दर जगह बची कैसी रह गई. हमारा इस तरह से यहाँ अप्रत्याशित पहुंचना और चौंकना सबकुछ हमें एक स्वप्न की तरह लग रहा था. खैर कुछ ही देर में हम इस मायावी दुनिया से हकीकत की दुनिया में पहुँच गए.
कुछ देर बाद पंडित जी भी तैयार हो कर आ गए, सुबह के करीब दस बज रहे थे और बच्चों ने अब तक कुछ खाया नहीं था, मेरा तो खैर उस दिन वृत था लेकिन मुकेश, पंडित जी और बच्चों ने नाश्ता किया और अब हम उज्जैन की तरफ बढ़ गए.
शाम चार बजे के लगभग हम लोग उज्जैन से इंदौर लौट आये, पहले पंडित जी को उनके घर छोड़ा और अब भी हमारे पास बहुत वक़्त था इंदौर के कुछ और दर्शनीय स्थलों की सैर करने के लिए सो हमने तय किया की रास्ते में ही इंदौर का प्रसिद्द कांच मंदिर पड़ता है तो सबसे पहले कांच मंदिर ही देख लिया जाए और हम पहुँच गए कांच मंदिर / शीश मंदिर, यह अद्भुत मंदिर कांच की चमत्कारिक कलाकारी का एक अति सुन्दर उदाहरण है.
यह एक जैन मंदिर है तथा इसे सर सेठ हुकुमचंद जैन ने २० वीं शताब्दी के शुरुआत में बनवाया था.यह इंदौर के इतवारिया बाज़ार क्षेत्र में स्थित है. इस मंदिर की विशेषता यह है की इसके दरवाज़े, स्तम्भ, छत एवं दीवारें यहाँ तक की फर्श भी पूरी तरह से कांच के अलग अलग आकार के टुकड़ों से जड़ी हुई हैं. यह शहर के कुछ मुख्य आकर्षणों में से एक है. इस मंदिर में सुन्दर चित्रकारी भी की हुई है जो जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों की कहानियों को दर्शाते हैं. इस मंदिर में मुख्य देवता के रूप में भगवान् महावीर स्वामी विद्यमान हैं. मंदिर में अन्दर की ओर फोटोग्राफी की अनुमति नहीं थी, लेकिन हम कहाँ मानने वाले थे सिक्योरिटी गार्ड से नज़र बचा कर एक दो क्लिक कर ही दिए और आज हम पर भगवान भी मेहरबान थे, उसे पता भी नहीं चला.
कुछ देर मंदिर की सुन्दरता का अवलोकन करने के बाद हम अपने अगले पड़ाव यानी खजराना के गणेश मंदिर की ओर चल दिए, लेकिन अब हमें तथा बच्चों को भूख सताने लगी थी अतः हमने सोचा की पहले कुछ खा लिया जाए. खाना खाने का हमारा मन नहीं था, हम सोच रहे थे की खाना खाने के बजाय थोडा हेवी नाश्ता कर लिया जाया और इसके लिए इस समय इंदौर में छप्पन दूकान से बढ़िया जगह हो ही नहीं सकती, और हमने अपनी स्पार्क को छप्पन दुकान चलने के लिए आदेश दिया.
अगर आप को खाने का शौक है और आप इंदौर में हैं तो एक बार छप्पन दूकान जरुर जाइए, और फिर आप यहाँ हर बार जायेंगे ये मेरा वादा है. छप्पन दूकान, 56 दुकानों की एक श्रंखला है जो की इंदौर की एक विरासत है, सारी की सारी छप्पन दुकानें खाने की एक से बढ़कर एक चीजों से भरी हुईं. यहाँ की विशेषता है अलग अलग तरह की चाट, और यहाँ ज्यादातर दुकानें चाट कौर्नर्स की ही हैं.
चाट के अलावा यहाँ पिज्जा, हॉट डोग, चाइनीज़ जोइंट्स भी हैं. कुछ प्रसिद्द दुकानें जो छप्पन दूकान की शान हैं – विजय चाट हाउस, जोनी हॉट डॉग, एवर फ्रेश बेकर्स, पुष्पक पिज्जा हाउस, गणगौर तथा अग्रवाल स्वीट्स. कहा जाता है की इंदौर, खाने के शौकीनों के लिए स्वर्ग है. छप्पन दूकान से चाट तथा नुडल्स खाने के बाद हम खजराना मंदिर की ओर चल दिए.
इंदौर तथा इंदौर के आसपास के कस्बों के लोगों की इंदौर के खजराना गणेश मंदिर में असीम श्रद्धा है. यह मंदिर इंदौर की शासिका देवी अहिल्या बाई होलकर के द्वारा सन 1875 में बनवाया गया है. इंदौर के धर्मप्रेमी हिन्दुओं के लिए यह मंदिर बहुत महत्वपूर्ण है. हर बुधवार तथा रविवार को इस मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ होती है.
मंदिर के बाहर लगी पूजन सामग्री की सैकड़ों दुकानों में से एक से प्रसाद के रूप में मोतीचूर के लड्डुओं का एक पेकेट लेकर हम चल दिए भगवान् के दर्शनों को, आज हमारी किस्मत अच्छी थी क्योंकि भीड़ अपेक्षाकृत कम थी और करीब आधे घंटे के इंतज़ार के बाद हमें गणेश जी के दर्शन हो गए. फोटोग्राफी के मामले यहाँ भी बाकी जगहों की तरह अड़ियल रवैया ही था तथा हमने मंदिर के अन्दर फोटो नहीं निकलने दिए गए. और हम यहाँ चोरी से फोटो खींचने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए क्योंकि जगह जगह पर गार्ड्स खड़े थे.
खजराना गणेश मंदिर के दर्शनों के बाद अब हमारा आज के लिए अगला एवं अंतिम पड़ाव था लाल बाग़ पेलेस, सो बिना वक़्त गंवाए अब हम चल पड़े थे लाल बाग़ पेलेस की ओर.
लालबाग पेलेस - इंदौर के होलकर राजवंश की एक महानतम विरासत के रूप में अपने गौरवशाली अतीत की गाथा सुनाता यह स्मारक होलकर राजवंश के वैभव, पसंद एवं जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है. इंदौर के लालबाग पेलेस की शान कुछ और ही है. खान नदी के किनारे पर 28 एकड़ में बने राजघराने का यह लालबाग महल बाहर से तो साधारण दिखाई देता है परन्तु भीतर से इसकी सजावट देखते ही बनती है और पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है.
इसका निर्माण सन 1886 में महाराजा तुकोजी राव होलकर द्वितीय के शासनकाल में प्रारंभ हुआ और महाराजा तुकोजीराव तृतीय के शासनकाल में संपन्न हुआ. इसका निर्माण तीन चरणों में किया गया है. इस महल का सबसे नीचे का ताल प्रवेश कक्ष है जिसका फर्श संगमरमर का बना हुआ है. यह एतिहासिक शिल्पकृति का एक उत्कृष्ट नमूना है.
इस महल की सबसे बड़ी खासियत है इसका प्रवेश द्वार, यह द्वार इंग्लैंड के बर्मिंघम पेलेस के मुख्य द्वार की हुबहू प्रतिकृति है जिसे जहाज के रास्ते मुंबई तथा वहां से सड़क मार्ग से इंदौर लाया गया. यह दरवाज़ा बीड़ धातु का बना हुआ है. पुरे देश में इस दरवाज़े की मरम्मत नहीं हो सकती, इसे मरम्मत के लिए इंग्लैंड ही ले जाना पड़ता है. इस महल के दरवाज़ों पर राजघराने की मोहर लगी है. बाल रूम का लकड़ी का फ्लोर स्प्रिंग का बना है जो उछलता है. महल की रसोई से नदी का किनारा दिखाई देता है. रसोई से एक रास्ता भूमिगत सुरंग में भी खुलता है.
सिंहासन कक्ष में वर्षों तक बैठकें तथा ख़ास कार्यक्रम हुआ करते थे. 1978 तक यह राज निवास रहा तथा तुकोजीराव तृतीय इस महल के अंतिम निवासी थे. यह महल अपने साथ में आज भी होलकर राज्य की शान और शाही जीवन शैली की अमिट छाप लिए हुए है और अपने भीतर होलकर राज्य का स्वर्णीम इतिहास समेटे हुए है. यहाँ महल के भीतर फोटो लेना तथा विडिओग्राफी करना सख्त मना है.
यहाँ आप सुबह दस बजे से शाम पांच बजे तक प्रवेश कर सकते है. महल के कमरों के सजावट देखते ही बनती है, कमरों की दीवारों और छत पर सुन्दर कलाकृतियाँ दिखाई देती हैं. यहाँ पर कारीगरी में बेल्जियम के कांच, पर्सियन कालीन, महंगे और ख़ूबसूरत झाड फानूस, और इटालियन संगमरमर का ख़ूबसूरत प्रयोग किया गया है. लाल बाग पेलेस के इस खुशनुमा एहसास के बाद अब हम करीब साढ़े छः बजे यहाँ से निकल आए.
अब तक हमें इंदौर में घुमक्कड़ी करते हुए शाम हो गई थी, इंदौर के कुछ और काम निबटाने के बाद करीब साढ़े सात बजे हम लोग वापस अपने घर की ओर मुड़ गए. धार, झाबुआ, गुजरात एवं राजस्थान की ओर जानेवाली बसों का बस अड्डा गंगवाल बस स्टेंड हमारे लिए इंदौर का आखरी पड़ाव होता है, क्योंकि यह इस ओर इंदौर का आखिरी छोर है. यहाँ बस स्टेंड पर नाश्ते वगैरह की अच्छी व्यवस्था है, हमने सोचा की घर पर जाकर तो कुछ खाना वगैरह बनाना नहीं है अतः थोडा कुछ और खा लिया जाए ताकि बच्चे बाद में परेशान न करें तथा हमें भी फिर से भूख न सताए.
एक दर्द भरी दास्ताँ :
बस स्टेंड परिसर से नाश्ता करने के बाद हम अपनी कार की ओर चल दिए. अब तक पूरी तरह से अँधेरा हो चूका था, जैसे ही हम कार के करीब पहुंचे हमने कुछ अलग ही दृश्य दिखाई दिया. हमारी कार से बहुत थोड़ी सी दुरी पर मजदूर से दिखाई देने वाले दो आदिवासी व्यक्ति तीन पत्थरों पर अस्थाई चूल्हा बना कर उसमें आग लगाकर एक पतिलिनुमा बर्तन में कुछ पकाने की कोशिश कर रहे थे. दृश्य कुछ ऐसा था की अपनी कार में बैठने के बाद भी हमारा मन आगे बढ़ने को नहीं हुआ और हम सभी गाडी के पिछले कांच से स्तब्ध होकर यह सब देखने लगे.
वे लोग चूल्हे में लकड़ी के स्थान पर फटे पुराने कपडे, टायर, प्लास्टिक की थैलियाँ, कागज़ आदि डालकर चूल्हा जलाने की कोशिश कर रहे थे. अब इन सब चीजों से चूल्हा थोड़ी देर के लिए जल जाता लेकिन कुछ ही देर बाद फिर बुझ जाता था, चूँकि वे बस स्टेंड के करीब सड़क किनारे थे अतः वहां लकड़ी मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता था. एक विशेष बात यह थी की वे दोनों ग्रामीण मजदूर थे, उनके हाव भाव से स्पष्ट दिखाई दे रहा था की वे भूख से व्याकुल हैं. वे नशे में धुत्त थे और उन्हें इतना भी होश नहीं था की वे क्या कर रहे हैं.
उनके हावभाव तथा चूल्हे की स्थिति देखकर लग रहा था की खाना पकने से तो रहा, जो कुछ भी अधपका पतीली में था उसे वे जल्द बाजी में एक एल्युमिनियम की थाली में निकाल कर ऐसे खा रहे थे जैसे जन्मों के भूखे हों. यह द्रश्य देखकर मुझे तो उबकाई सी आने लगी, लेकिन मुकेश किसी रिपोर्टर की भाँती उनकी हर एक गतिविधि को बहुत बारीकी से देख रहे थे. बच्चे अब तक सो गए थे, मेरे कई बार आग्रह करने के बाद भी मुकेश गाडी बढाने को तैयार नहीं थे, उन्हें न जाने कौन से तिलिस्म ने मंत्रमुग्ध कर दिया था की वे इस द्रश्य से नज़रें ही नहीं हटा रहे थे, उन्होंने मुझसे पांच मिनट और रुकने की रिक्वेस्ट की और फिर से उन मजदूरों के क्रियाकलाप की ओर नज़रें गड़ा कर देखने लगे.
हाँ तो मैं बता रही थी की उन्होंने पतीली में से कुछ अधपका सा निकाला जिसमें से धुंआ निकल रहा था. क्या आप जानना चाहते हैं की उन्होंने थाली में क्या परोसा? तो बताती हूँ, वे जो खा रहे थे वह अधपका मांस था. यह देखकर हमारे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, और एक अनजाना सा दर्द महसूस हुआ, ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? शराब के नशे की वजह से या गरीबी की वजह से? मांस भी न जाने किस चीज़ का था.
वे रबर की तरह कच्ची बोटियों को अपने दांतों से खिंच कर तोड़ने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हर बार नाकामयाबी ही उनके हाथ लग रही थी. चूँकि बोटियाँ बड़ी बड़ी थी अतः वे उन्हें ऐसे ही निगल भी नहीं सकते थे. पतीली में से निकाली गई हर एक बोटी के साथ अपनी पूरी ताकत आजमाने के बाद तथा असफल होने के बाद थक हार कर वे सर पर हाथ धर कर बैठ गए, उनके पल्ले अब तक कुछ नहीं पड़ा था. चूल्हे में से अब सिर्फ हल्का सा धुंआ ही निकल रहा था, आग पहले भी नहीं थी और अब भी नहीं. अत्याधीक भूख के भाव उनके चेहरे तथा हावभाव से स्पष्ट दिखाई दे रहे थे.
उनकी यह स्थिति मुकेश से देखी नहीं गई, वे मुझसे कुछ कहे बिना ही कार से उतरे और उन अभागे लोगो के पास पहुंचे, अपनी जेब से सौ का नोट निकाला और उनकी ओर बढ़ा दिया. वे दोनों यह देखकर टकटकी लगाये मुकेश के चेहरे की ओर देख रहे थे, माजरा उनकी कुछ समझ में नहीं आया. उनकी स्थिति को समझते हुए मुकेश ने उनसे कहा की ये पैसे रखो और सामने वाले भोजनालय में जाकर खाना खा लो.
उन्होंने कृतज्ञता से परिपूर्ण एक नज़र मुकेश पर डाली और चुपचाप तेज क़दमों से भोजनालय की ओर चल दिए…..
मैं चाहती थी की मुकेश उन्हें कुछ खाने का सामान लाकर अपने हाथों से ही दे दे क्योंकि मुझे लग रहा था हमारे दिए हुए पैसों से कहीं वे फिर से शराब न पी लें, लेकिन समय की कमी की वजह से हम ऐसा नहीं कर पाए और उन्हें उनके हाल पर छोड़कर इस विश्वास के साथ की हमारा पैसा सही उपयोग में ही लाया जाएगा हम गाडी स्टार्ट कर के अपने घर की ओर चल दिए……….
अब इस कड़ी को यहीं समाप्त करती हूँ और इस श्रंखला से एक लम्बा विराम लेती हूँ, लेकिन यह श्रंखला अभी तब तक समाप्त नहीं होगी जब तक मैं आपलोगों को इंदौर के सारे दर्शनीय स्थल न दिखा दूँ.
पहली बार इंदौर को एक पर्यटक की नज़र से देखना और तस्वीरें लेना हमारे लिए एकदम नया अनुभव था. लेकिन जो कुछ भी हो हमें अपने शहर में घुमक्कड़ी करने में बड़ा मज़ा आया.
अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है हमें अपने अध्यात्मिक गुरु दंडीस्वामी श्री मोहनानंद सरस्वती जी से भेंट करने के लिए उज्जैन जाना था. उज्जैन जाना और गुरूजी से मिलकर आना कुछ पांच छः घंटे के काम था तो हमने सोचा की क्यों न थोडा समय बचाकर एक बार फिर इंदौर के कुछ अन्य दर्शनीय स्थलों की सैर की जाए, और बस हमारा प्लान बन गया.
इधर बहुत दिनों से सुनने में आ रहा था की इंदौर में वैष्णो धाम नाम से एक नया मंदिर बना है जो की जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर की प्रतिकृति है तथा बहुत ही ख़ूबसूरत है, एकदम वैष्णो देवी मंदिर की ही तरह इस मंदिर के लिए यहाँ कृत्रिम गुफा बनायीं गई हैं आदि आदि………हमें अब तक वैष्णो देवी जाने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ है, तो हम बहुत दिनों से सोच रहे थे की इंदौर की वैष्णो देवी के मंदिर के ही दर्शन कर लिए जाएँ.
अब यहाँ संयोग ये हुआ की हमारे एक परिचित पंडित जी हैं जिन्होंने हमें गुरु जी से दीक्षा दिलवाई थी और इस तरह से वे हमारे गुरु भाई हुए, अब चूँकि हमें गुरूजी से मिलने उज्जैन जाना था वो भी अपनी कार से, तो हमने सोचा की क्यों न पंडित जी से पूछ लिया जाए शायद वे भी हमारे साथ गुरूजी से मिलने चल दें, तो मुकेश ने पंडित जी को फ़ोन लगाया और जाने के लिए पूछा और वे हमारे साथ जाने को राजी हो गए. जब हमने उनसे पूछा की हम उन्हें लेने के लिए कहाँ आयें तो उन्होंने हमें जानकारी दी की आजकल वे इंदौर में नए बने वैष्णो देवी मंदिर के मुख्य पुरोहित हैं तथा मंदिर केम्पस में ही रहते हैं, तो हमारी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा.
बहुत दिनों से इस मंदिर के दर्शनों के लिए सोच रहे थे और आज इतना अच्छा संयोग बन गया तो हमने सोचा की क्यों न सबसे पहले पंडित जी को मंदिर से ले लिया जाए इस तरह से मंदिर के दर्शन भी हो जायेंगे. बस फिर क्या था हमने कुछ लोगों से मंदिर के पते की जानकारी लेकर अपनी गाड़ी उस ओर घुमा दी.
इस मंदिर के बारे में ज्यादा कुछ जानकारी तो थी नहीं, बस इतना मालुम था की यह मंदिर वैष्णो देवी के किसी सिक्ख भक्त ने करोड़ों रुपयों की लागत से बनवाया है. हमने मंदिर पहुंचकर पार्किंग स्थल पर अपनी गाड़ी खड़ी कर दी और कुछ कदम पैदल चलकर मंदिर के करीब पहुंचे. जब हमने पहली बार मंदिर को बाहर से देखा तो हम सभी इस मंदिर की बाहरी सुन्दरता देखकर ही विस्मित हो गए. बड़े ही सुन्दर एवं अद्भुत तरीके से बनाया गया है यह मंदिर और इसकी बाहरी तथा आतंरिक सुन्दरता की वजह से इसकी लोकप्रियता इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ रही है.
सबसे पहले तो हमने मंदिर के सिक्योरिटी गार्ड से पंडित जी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया की वे हमें गर्भगृह में ही मिल जायेंगे. और बस हमने मंदिर के कोने पर ही बने प्रसाद विक्रय केंद्र से प्रसाद ख़रीदा और मंदिर में प्रवेश कर गए. जैसे ही हमने मंदिर में प्रवेश किया तो हमने लगा……..अरे ये तो हम साक्षात् माता वैष्णो देवी के दरबार में पहुँच गए हैं. हुबहू वैष्णो देवी मंदिर जैसा, पत्थरों तथा कृत्रिम चट्टानों से गुफा बनाकर करोड़ों की लगत से बनाए गए इस मंदिर को देखकर हमारी आँखें खुली की खुली रह गईं. हम तो ख़ुशी के मारे फुले नहीं समां रहे थे की हम बिना किसी जानकारी के इतने सुन्दर मंदिर में पहुँच गए.
जैसे जैसे हम मंदिर में आगे बढ़ते जा रहे थे आश्चर्य एवं विस्मय से हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे. बिलकुल किसी प्राकृतिक गुफा की तरह गोल मोल, टेढ़े मेढ़े, उबड़ खाबड़ घुमावदार रास्ते, घुप्प अँधेरा, कृत्रिम जंगली जानवर, कृत्रिम जंगली पेड़ पौधे और कई जगह तो रास्ते में गुफा इतनी संकरी की पूरी तरह से बैठकर या लेट कर ही निकला जा सकता था.
गुफा के रास्ते में एक दो जगह गहरी खाइयाँ, तथा झरने भी बनाये गए हैं………………घोर आश्चर्य, शहर के बीचोंबीच स्थित इस आश्चर्यजनक मंदिर में गुफा पार करने के दौरान करीब पंद्रह बीस मिनट के लिए आप किसी दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाते हैं. इस आश्चर्यजनक गुफानुमा रास्ते को पार करने के बाद थोड़ी सी रौशनी दिखाई देती है तथा कुछ आवाजें सुनाई देती हैं, और फिर कुछ ही पलों में हम पहुँच जाते हैं गर्भगृह में जहाँ बिलकुल वैष्णोदेवी मंदिर की तर्ज़ पर माता जी तीन पाषाण की पिंडियों के रूप में विराजित हैं. ये तीनों पिंडियाँ वैष्णोदेवी मंदिर कटरा से यहाँ लाई गई हैं.
और सोने पे सुहागा वाली बात यह थी की चूँकि हम इस मंदिर के मुख्य पुजारी के परिचित थे अतः हमने मंदिर में विशेष महत्त्व तथा सम्मान मिल रहा था. गर्भगृह में सबसे पहले माता के दर्शन करने के बाद हम पुजारी जी से मिले, तो उन्होंने कहा की आप लोग इत्मीनान से मंदिर के दर्शन कर लो तब तक मैं भी चलने के लिए तैयार होता हूँ.
इस बड़े से मंदिर परिसर में माता वैष्णो देवी के दर्शनों के बाद वापसी वाले रास्ते में और भी देवी देवताओं जैसे भोले बाबा, गणेश जी, दुर्गा माता, साईं बाबा अदि के भी मंदिर हैं. ये सब देखते देखते हम इतना खुश हो रहे थे की मैं उस ख़ुशी का बखान शब्दों में नहीं कर सकती. कहाँ तो हम महज पुजारी जी को रिसीव करने आये थे और कहाँ हमें इस अद्भुत मदिर के दर्शन मिल गए. मंदिर के अन्दर फोटोग्राफी तथा विडियो ग्राफी की अनुमति नहीं थी, अतः हम बस बाहर से ही कुछ तस्वीरें खिंच पाए.
हम सब मदिर को ऐसे निहार रहे थे जैसे हमें कोई कुबेर का गड़ा खजाना मिल गया हो, और हमें ऐसा लग रहा था की हम एक अलग ही दुनिया में आ गए हैं, साथ ही साथ हम यह भी सोच रहे थे की हम जैसे खोजी धार्मिक घुमक्कड़ों की नज़रों से इंदौर में ही स्थित इतनी सुन्दर जगह बची कैसी रह गई. हमारा इस तरह से यहाँ अप्रत्याशित पहुंचना और चौंकना सबकुछ हमें एक स्वप्न की तरह लग रहा था. खैर कुछ ही देर में हम इस मायावी दुनिया से हकीकत की दुनिया में पहुँच गए.
कुछ देर बाद पंडित जी भी तैयार हो कर आ गए, सुबह के करीब दस बज रहे थे और बच्चों ने अब तक कुछ खाया नहीं था, मेरा तो खैर उस दिन वृत था लेकिन मुकेश, पंडित जी और बच्चों ने नाश्ता किया और अब हम उज्जैन की तरफ बढ़ गए.
शाम चार बजे के लगभग हम लोग उज्जैन से इंदौर लौट आये, पहले पंडित जी को उनके घर छोड़ा और अब भी हमारे पास बहुत वक़्त था इंदौर के कुछ और दर्शनीय स्थलों की सैर करने के लिए सो हमने तय किया की रास्ते में ही इंदौर का प्रसिद्द कांच मंदिर पड़ता है तो सबसे पहले कांच मंदिर ही देख लिया जाए और हम पहुँच गए कांच मंदिर / शीश मंदिर, यह अद्भुत मंदिर कांच की चमत्कारिक कलाकारी का एक अति सुन्दर उदाहरण है.
यह एक जैन मंदिर है तथा इसे सर सेठ हुकुमचंद जैन ने २० वीं शताब्दी के शुरुआत में बनवाया था.यह इंदौर के इतवारिया बाज़ार क्षेत्र में स्थित है. इस मंदिर की विशेषता यह है की इसके दरवाज़े, स्तम्भ, छत एवं दीवारें यहाँ तक की फर्श भी पूरी तरह से कांच के अलग अलग आकार के टुकड़ों से जड़ी हुई हैं. यह शहर के कुछ मुख्य आकर्षणों में से एक है. इस मंदिर में सुन्दर चित्रकारी भी की हुई है जो जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों की कहानियों को दर्शाते हैं. इस मंदिर में मुख्य देवता के रूप में भगवान् महावीर स्वामी विद्यमान हैं. मंदिर में अन्दर की ओर फोटोग्राफी की अनुमति नहीं थी, लेकिन हम कहाँ मानने वाले थे सिक्योरिटी गार्ड से नज़र बचा कर एक दो क्लिक कर ही दिए और आज हम पर भगवान भी मेहरबान थे, उसे पता भी नहीं चला.
कुछ देर मंदिर की सुन्दरता का अवलोकन करने के बाद हम अपने अगले पड़ाव यानी खजराना के गणेश मंदिर की ओर चल दिए, लेकिन अब हमें तथा बच्चों को भूख सताने लगी थी अतः हमने सोचा की पहले कुछ खा लिया जाए. खाना खाने का हमारा मन नहीं था, हम सोच रहे थे की खाना खाने के बजाय थोडा हेवी नाश्ता कर लिया जाया और इसके लिए इस समय इंदौर में छप्पन दूकान से बढ़िया जगह हो ही नहीं सकती, और हमने अपनी स्पार्क को छप्पन दुकान चलने के लिए आदेश दिया.
अगर आप को खाने का शौक है और आप इंदौर में हैं तो एक बार छप्पन दूकान जरुर जाइए, और फिर आप यहाँ हर बार जायेंगे ये मेरा वादा है. छप्पन दूकान, 56 दुकानों की एक श्रंखला है जो की इंदौर की एक विरासत है, सारी की सारी छप्पन दुकानें खाने की एक से बढ़कर एक चीजों से भरी हुईं. यहाँ की विशेषता है अलग अलग तरह की चाट, और यहाँ ज्यादातर दुकानें चाट कौर्नर्स की ही हैं.
चाट के अलावा यहाँ पिज्जा, हॉट डोग, चाइनीज़ जोइंट्स भी हैं. कुछ प्रसिद्द दुकानें जो छप्पन दूकान की शान हैं – विजय चाट हाउस, जोनी हॉट डॉग, एवर फ्रेश बेकर्स, पुष्पक पिज्जा हाउस, गणगौर तथा अग्रवाल स्वीट्स. कहा जाता है की इंदौर, खाने के शौकीनों के लिए स्वर्ग है. छप्पन दूकान से चाट तथा नुडल्स खाने के बाद हम खजराना मंदिर की ओर चल दिए.
इंदौर तथा इंदौर के आसपास के कस्बों के लोगों की इंदौर के खजराना गणेश मंदिर में असीम श्रद्धा है. यह मंदिर इंदौर की शासिका देवी अहिल्या बाई होलकर के द्वारा सन 1875 में बनवाया गया है. इंदौर के धर्मप्रेमी हिन्दुओं के लिए यह मंदिर बहुत महत्वपूर्ण है. हर बुधवार तथा रविवार को इस मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ होती है.
मंदिर के बाहर लगी पूजन सामग्री की सैकड़ों दुकानों में से एक से प्रसाद के रूप में मोतीचूर के लड्डुओं का एक पेकेट लेकर हम चल दिए भगवान् के दर्शनों को, आज हमारी किस्मत अच्छी थी क्योंकि भीड़ अपेक्षाकृत कम थी और करीब आधे घंटे के इंतज़ार के बाद हमें गणेश जी के दर्शन हो गए. फोटोग्राफी के मामले यहाँ भी बाकी जगहों की तरह अड़ियल रवैया ही था तथा हमने मंदिर के अन्दर फोटो नहीं निकलने दिए गए. और हम यहाँ चोरी से फोटो खींचने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए क्योंकि जगह जगह पर गार्ड्स खड़े थे.
खजराना गणेश मंदिर के दर्शनों के बाद अब हमारा आज के लिए अगला एवं अंतिम पड़ाव था लाल बाग़ पेलेस, सो बिना वक़्त गंवाए अब हम चल पड़े थे लाल बाग़ पेलेस की ओर.
लालबाग पेलेस - इंदौर के होलकर राजवंश की एक महानतम विरासत के रूप में अपने गौरवशाली अतीत की गाथा सुनाता यह स्मारक होलकर राजवंश के वैभव, पसंद एवं जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है. इंदौर के लालबाग पेलेस की शान कुछ और ही है. खान नदी के किनारे पर 28 एकड़ में बने राजघराने का यह लालबाग महल बाहर से तो साधारण दिखाई देता है परन्तु भीतर से इसकी सजावट देखते ही बनती है और पर्यटकों को अपनी ओर खींचती है.
इसका निर्माण सन 1886 में महाराजा तुकोजी राव होलकर द्वितीय के शासनकाल में प्रारंभ हुआ और महाराजा तुकोजीराव तृतीय के शासनकाल में संपन्न हुआ. इसका निर्माण तीन चरणों में किया गया है. इस महल का सबसे नीचे का ताल प्रवेश कक्ष है जिसका फर्श संगमरमर का बना हुआ है. यह एतिहासिक शिल्पकृति का एक उत्कृष्ट नमूना है.
इस महल की सबसे बड़ी खासियत है इसका प्रवेश द्वार, यह द्वार इंग्लैंड के बर्मिंघम पेलेस के मुख्य द्वार की हुबहू प्रतिकृति है जिसे जहाज के रास्ते मुंबई तथा वहां से सड़क मार्ग से इंदौर लाया गया. यह दरवाज़ा बीड़ धातु का बना हुआ है. पुरे देश में इस दरवाज़े की मरम्मत नहीं हो सकती, इसे मरम्मत के लिए इंग्लैंड ही ले जाना पड़ता है. इस महल के दरवाज़ों पर राजघराने की मोहर लगी है. बाल रूम का लकड़ी का फ्लोर स्प्रिंग का बना है जो उछलता है. महल की रसोई से नदी का किनारा दिखाई देता है. रसोई से एक रास्ता भूमिगत सुरंग में भी खुलता है.
सिंहासन कक्ष में वर्षों तक बैठकें तथा ख़ास कार्यक्रम हुआ करते थे. 1978 तक यह राज निवास रहा तथा तुकोजीराव तृतीय इस महल के अंतिम निवासी थे. यह महल अपने साथ में आज भी होलकर राज्य की शान और शाही जीवन शैली की अमिट छाप लिए हुए है और अपने भीतर होलकर राज्य का स्वर्णीम इतिहास समेटे हुए है. यहाँ महल के भीतर फोटो लेना तथा विडिओग्राफी करना सख्त मना है.
यहाँ आप सुबह दस बजे से शाम पांच बजे तक प्रवेश कर सकते है. महल के कमरों के सजावट देखते ही बनती है, कमरों की दीवारों और छत पर सुन्दर कलाकृतियाँ दिखाई देती हैं. यहाँ पर कारीगरी में बेल्जियम के कांच, पर्सियन कालीन, महंगे और ख़ूबसूरत झाड फानूस, और इटालियन संगमरमर का ख़ूबसूरत प्रयोग किया गया है. लाल बाग पेलेस के इस खुशनुमा एहसास के बाद अब हम करीब साढ़े छः बजे यहाँ से निकल आए.
अब तक हमें इंदौर में घुमक्कड़ी करते हुए शाम हो गई थी, इंदौर के कुछ और काम निबटाने के बाद करीब साढ़े सात बजे हम लोग वापस अपने घर की ओर मुड़ गए. धार, झाबुआ, गुजरात एवं राजस्थान की ओर जानेवाली बसों का बस अड्डा गंगवाल बस स्टेंड हमारे लिए इंदौर का आखरी पड़ाव होता है, क्योंकि यह इस ओर इंदौर का आखिरी छोर है. यहाँ बस स्टेंड पर नाश्ते वगैरह की अच्छी व्यवस्था है, हमने सोचा की घर पर जाकर तो कुछ खाना वगैरह बनाना नहीं है अतः थोडा कुछ और खा लिया जाए ताकि बच्चे बाद में परेशान न करें तथा हमें भी फिर से भूख न सताए.
एक दर्द भरी दास्ताँ :
बस स्टेंड परिसर से नाश्ता करने के बाद हम अपनी कार की ओर चल दिए. अब तक पूरी तरह से अँधेरा हो चूका था, जैसे ही हम कार के करीब पहुंचे हमने कुछ अलग ही दृश्य दिखाई दिया. हमारी कार से बहुत थोड़ी सी दुरी पर मजदूर से दिखाई देने वाले दो आदिवासी व्यक्ति तीन पत्थरों पर अस्थाई चूल्हा बना कर उसमें आग लगाकर एक पतिलिनुमा बर्तन में कुछ पकाने की कोशिश कर रहे थे. दृश्य कुछ ऐसा था की अपनी कार में बैठने के बाद भी हमारा मन आगे बढ़ने को नहीं हुआ और हम सभी गाडी के पिछले कांच से स्तब्ध होकर यह सब देखने लगे.
वे लोग चूल्हे में लकड़ी के स्थान पर फटे पुराने कपडे, टायर, प्लास्टिक की थैलियाँ, कागज़ आदि डालकर चूल्हा जलाने की कोशिश कर रहे थे. अब इन सब चीजों से चूल्हा थोड़ी देर के लिए जल जाता लेकिन कुछ ही देर बाद फिर बुझ जाता था, चूँकि वे बस स्टेंड के करीब सड़क किनारे थे अतः वहां लकड़ी मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता था. एक विशेष बात यह थी की वे दोनों ग्रामीण मजदूर थे, उनके हाव भाव से स्पष्ट दिखाई दे रहा था की वे भूख से व्याकुल हैं. वे नशे में धुत्त थे और उन्हें इतना भी होश नहीं था की वे क्या कर रहे हैं.
उनके हावभाव तथा चूल्हे की स्थिति देखकर लग रहा था की खाना पकने से तो रहा, जो कुछ भी अधपका पतीली में था उसे वे जल्द बाजी में एक एल्युमिनियम की थाली में निकाल कर ऐसे खा रहे थे जैसे जन्मों के भूखे हों. यह द्रश्य देखकर मुझे तो उबकाई सी आने लगी, लेकिन मुकेश किसी रिपोर्टर की भाँती उनकी हर एक गतिविधि को बहुत बारीकी से देख रहे थे. बच्चे अब तक सो गए थे, मेरे कई बार आग्रह करने के बाद भी मुकेश गाडी बढाने को तैयार नहीं थे, उन्हें न जाने कौन से तिलिस्म ने मंत्रमुग्ध कर दिया था की वे इस द्रश्य से नज़रें ही नहीं हटा रहे थे, उन्होंने मुझसे पांच मिनट और रुकने की रिक्वेस्ट की और फिर से उन मजदूरों के क्रियाकलाप की ओर नज़रें गड़ा कर देखने लगे.
हाँ तो मैं बता रही थी की उन्होंने पतीली में से कुछ अधपका सा निकाला जिसमें से धुंआ निकल रहा था. क्या आप जानना चाहते हैं की उन्होंने थाली में क्या परोसा? तो बताती हूँ, वे जो खा रहे थे वह अधपका मांस था. यह देखकर हमारे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, और एक अनजाना सा दर्द महसूस हुआ, ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? शराब के नशे की वजह से या गरीबी की वजह से? मांस भी न जाने किस चीज़ का था.
वे रबर की तरह कच्ची बोटियों को अपने दांतों से खिंच कर तोड़ने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हर बार नाकामयाबी ही उनके हाथ लग रही थी. चूँकि बोटियाँ बड़ी बड़ी थी अतः वे उन्हें ऐसे ही निगल भी नहीं सकते थे. पतीली में से निकाली गई हर एक बोटी के साथ अपनी पूरी ताकत आजमाने के बाद तथा असफल होने के बाद थक हार कर वे सर पर हाथ धर कर बैठ गए, उनके पल्ले अब तक कुछ नहीं पड़ा था. चूल्हे में से अब सिर्फ हल्का सा धुंआ ही निकल रहा था, आग पहले भी नहीं थी और अब भी नहीं. अत्याधीक भूख के भाव उनके चेहरे तथा हावभाव से स्पष्ट दिखाई दे रहे थे.
उनकी यह स्थिति मुकेश से देखी नहीं गई, वे मुझसे कुछ कहे बिना ही कार से उतरे और उन अभागे लोगो के पास पहुंचे, अपनी जेब से सौ का नोट निकाला और उनकी ओर बढ़ा दिया. वे दोनों यह देखकर टकटकी लगाये मुकेश के चेहरे की ओर देख रहे थे, माजरा उनकी कुछ समझ में नहीं आया. उनकी स्थिति को समझते हुए मुकेश ने उनसे कहा की ये पैसे रखो और सामने वाले भोजनालय में जाकर खाना खा लो.
उन्होंने कृतज्ञता से परिपूर्ण एक नज़र मुकेश पर डाली और चुपचाप तेज क़दमों से भोजनालय की ओर चल दिए…..
मैं चाहती थी की मुकेश उन्हें कुछ खाने का सामान लाकर अपने हाथों से ही दे दे क्योंकि मुझे लग रहा था हमारे दिए हुए पैसों से कहीं वे फिर से शराब न पी लें, लेकिन समय की कमी की वजह से हम ऐसा नहीं कर पाए और उन्हें उनके हाल पर छोड़कर इस विश्वास के साथ की हमारा पैसा सही उपयोग में ही लाया जाएगा हम गाडी स्टार्ट कर के अपने घर की ओर चल दिए……….
अब इस कड़ी को यहीं समाप्त करती हूँ और इस श्रंखला से एक लम्बा विराम लेती हूँ, लेकिन यह श्रंखला अभी तब तक समाप्त नहीं होगी जब तक मैं आपलोगों को इंदौर के सारे दर्शनीय स्थल न दिखा दूँ.