साथियों,
इस श्रंखला की पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा की वाराणसी के प्रमुख मंदिर तथा रामनगर फोर्ट घुमने के बाद हम लोग होटल के अपने कमरे में आ गए तथा कुछ देर विश्राम के बाद गंगा के घाटों के दर्शन का आनंद उठाने के उद्देश्य से अब हम नाव में सवार हो गए थे और सारे घाट घुमने के बाद दशाश्वमेध घाट पर आकर जम कर बैठ गए, गंगा आरती का आनंद लेने के लिए। गंगा आरती में शामिल होकर ऐसा लग रहा था जैसे हमारा जीवन सफल हो गया। अब आगे ………………………
बनारस की दो प्रसिद्द चीजें हैं जिनके बारे में हम सब बचपन से सुनते चले आ रहे हैं, उनमें से एक है बनारस की साड़ी और दूसरा है बनारस का पान। साड़ी की बात मैं बाद में करूंगा पहले बात करते हैं पान की, तो साहब आपने अमिताभ जी का वो गाना तो सुना ही होगा खाई के पान बनारस वाला ……………..मैंने भी बहुत सूना था। और यह गाना ही क्या वैसे भी कई बार और कई मौकों पर बनारसी पान का जिक्र सुना था, तो जब बनारस जाने का प्लान हुआ तो यह निश्चित कर के गए थे की चाहे कुछ भी हो बनारस का पान तो खाकर ही आयेंगे। सास ससुर जी की भी बहुत इच्छा थी की बनारस का पान जरुर खायेंगे। और ये इच्छा वैसे भी कोई बहुत मुश्किल नहीं थी अतः गंगा आरती में शामिल होने के बाद खाना खाया और खाने के बाद सभी ने नुक्कड़ की एक पान दूकान से एक एक पान खाया। वैसे सच कहूँ तो मुझे तो बनारस के पान में कुछ ख़ास बात नहीं लगी, यह एकदम सामान्य पान था जो की हर जगह मिल जाता है और स्वाद में भी कुछ ख़ास बात नहीं थी ……………खैर, यह बनारस में हमारी आखिरी रात थी और अगला दिन आखिरी दिन। अगले दिन यानी 26 अक्तूबर को दोपहर में चार बजे वाराणसी से इंदौर के लिए हमारी ट्रेन थी।
मेरे प्लान के मुताबिक़ इस आखिरी दिन हमें सुबह से सारनाथ जाना था जहाँ से दोपहर दो बजे तक वापस वाराणसी लौट कर रेलवे स्टेशन पहुंचना था। चूँकि कविता को सारनाथ के बारे में कुछ ज्यादा जानकारी नहीं थी अतः उसका तथा मम्मी पापा का भी सारनाथ जाने के ज्यादा मन नहीं था और वे लोग सोच रहे थे के कल होटल में ही दोपहर तक आराम करेंगे और फिर रेलवे स्टेशन के लिए निकल जायेंगे। लेकिन चूँकि मुझे सारनाथ जाना ही था अतः मैंने सारनाथ के बारे में उन लोगों को कुछ जानकारी दी तो वे लोग भी राजी ख़ुशी सारनाथ जाने के लिए तैयार हो गए।
अगले दिन हमें सुबह जल्दी ही सारनाथ के लिए निकलना था क्योंकि जल्दी लौटना भी था अतः मैंने सोचा की रात में ही किसी ऑटो वाले को ठहरा लेना चाहिए, अतः मैं निकल पड़ा ऑटो की खोज में। कुछ देर बाज़ार में चहलकदमी करते हुए मैंने एक ऑटो वाले से साढ़े चार सौ रुपये में सारनाथ घुमाकर होटल तक लाने तथा वहां से रेलवे स्टेशन तक छोड़ने के लिए राजी कर लिया। क्या कहते हैं, अच्छी डील रही ना ??
सो अगले दिन सुबह सात बजे ही ऑटो वाला होटल पहुँच गया, और हम सब भी तैयार होकर उसी का इंतज़ार कर रहे थे अतः बिना देर किये हम ऑटो में सवार हो गए और ऑटो चल पड़ा सारनाथ की ओर। सारनाथ वाराणसी से इतना करीब है की इसे वाराणसी से अलग कहना मुझे उचित नहीं लगता है। कब हम वाराणसी से सारनाथ पहुँच गए, सच कहूँ तो मुझे तो पता ही नहीं चला बिलकुल उसी तरह जिस तरह हम मथुरा से वृन्दावन पहुँच जाते हैं। कुछ आधे घंटे में हम सारनाथ पहुँच गए थे, और जैसे ही हमारा ऑटो सारनाथ पहुंचा हमेशा की तरह एक गाइड महोदय न जाने कहाँ से हमारे सामने प्रकट हो गए और कहने लगे की आपको ऐसा घुमायेंगे की मज़ा आ जायेगा, मैंने कहा कितने पैसे वे बोले बस पचास रुपये दे देना, सो हमने भी उन्हें ना नहीं कहा।
सुबह का समय था और नाश्ते की इच्छा प्रबल हो रही थी अतः हमने निर्णय लिया की सबसे पहले नाश्ता किया जाए फिर आगे दर्शन किये जायेंगे अतः ऑटो स्टेंड के करीब ही स्थित एक स्टाल पर हम सब नाश्ते के लिए जमा हो गए। गरमा गरम मसाला डोसा, इडली आदि उदरस्थ करने के बाद पास ही खड़े गाइड महोदय के साथ हो लिए।
आगे बढ़ने से पहले आइये परिचय कर लें सारनाथ से – काशी अथवा वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया करते थे। उस समय इसका नाम ‘ऋषिपत्तन मृगदाय’ था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था।
सम्राट अशोक के समय में यहाँ बहुत से निर्माण-कार्य हुए। सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही लिया गया है। यहाँ का ‘धमेक स्तूप’ सारनाथ की प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक खींचातानी के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्त्व कम हो गया था। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया।
सबसे पहले हम पहुंचे धमेख स्तूप पर लेकिन उस दिन किसी विशेष कारण से धमेख स्तूप का प्रवेश द्वार बंद था और हमें इसे बाहर से ही देख पाए। यह सारनाथ की सबसे आकर्षक संरचना है। सिलेन्डर के आकार के इस स्तूप का आधार व्यास 28 मीटर है जबकि इसकी ऊंचाई 43.6 मीटर है। धमेक स्तूप को बनवाने में ईट और रोड़ी और पत्थरों को बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया गया है। स्तूप के निचले तल में शानदार फूलों की नक्कासी की गई है।
धमेक स्तूप के बाद हम पहुंचे मुलगंध कुटी विहार मंदिर। यह मंदिर बहुत विशाल तथा सुन्दर मंदिर है, यह आधुनिक मंदिर महाबोधि सोसाइटी द्वारा बनवाया गया है। मंदिर में बने शानदार भित्तिचित्रों को जापान के सबसे लोकप्रिय चित्रकार कोसेत्सू नोसू ने बनाया था। मंदिर में समृद्ध बौद्ध साहित्य को भी सहेजकर रखा गया है। यहां का मूलागंध कुटी मंदिर सारनाथ के प्राचीन अवशेषों में एक है। मूलागंध कुटी विहार में ही महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम बरसाती मौसम बिताया था। एक बड़ी अच्छी बात इस मंदिर में हमें लगी और वो ये थी की यहाँ मंदिर के अन्दर भी फोटो लेने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, और मंदिर के अन्दर एक सुचना पट्ट पर लिखा था की कैमरे के उपयोग पर कोई शुल्क नहीं है आप स्वेच्छा से कोई भी राशि दान पात्र में डाल सकते हैं।
मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ा घंटा लगा हुआ है जो यहाँ पर सबके लिए आकर्षण का केंद्र होता है। मुलगंध कुटी विहार मंदिर के दर्शन के बाद हम करीब ही स्थित पवित्र बोधिवृक्ष की ओर चल पड़े। यह वाही स्थान है जहाँ पर भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश अपने पांच शिष्यों को दिया था। ऐसा कहा जाता है की सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका के अनुरधपूरा में लगाईं थी, उसी पेड़ की एक शाखा को यहाँ सारनाथ में लगाया गया है। गौतम बुद्ध तथा उनके शिष्यों की प्रतिमाएं म्यांमार के बौद्ध श्रद्धालुओं की सहायता से यहाँ लगाईं गई हैं। इसी परिसर में भगवान बुद्ध के अट्ठाईस रूपों की प्रतिमाएं भी स्थित हैं।
कुल मिला कर यह जगह बहुत ही सुन्दर एवं रोचक है। यहाँ पर कुछ देर रूककर तथा दर्शन करके अब हम आगे बढे जापानी मंदिर की ओर। यह मंदिर यहाँ जापानी सरकार के द्वारा बनवाया गया है एवं पूर्णतः जापानी शैली में बनाया गया है। यहाँ मंदिर के अन्दर भगवान बुद्ध की लेती अवस्था में बड़ी ही सुन्दर प्रतिमा स्थित है, यह मंदिर भी बड़ा ही सुन्दर था, और मजे की बात यह थी की सारनाथ में किसी भी मंदिर में फोटो खींचने पर प्रतिबन्ध नहीं था।
इसके बाद हम सब पहुंचे करीब ही स्थित चीनी मंदिर में, जापानी मंदिर की तरह चीनी मंदिर भी चीन की सरकार के द्वारा बनवाया गया है, इस मंदिर में चारों दीवारों पर बाहर की ओर भगवान बुद्ध की चार बड़ी बड़ी प्रतिमाएं लगाईं गई हैं। यहाँ कुछ देर रुकने तथा फोटो शोटो खींचने खिंचाने के बाद अब हमें गाइड अगले पड़ाव की और ले जा रहा था।
मैंने शुरू में आपसे बनारस की दो प्रसिद्द चीजों का ज़िक्र किया था, तो पान के बारे में तो बता चूका हूँ अब बात करते हैं साड़ी की, तो हुआ यूँ की मेरा मन था की हम बनारस से कविता के लिए बनारसी साड़ी खरीदें, लेकिन चूँकि कविता साड़ी बहुत कम पहनती हैं अतः उनका साड़ी लेने का बिलकुल मन नहीं था।
आपलोगों को बात अजीब लग रही होगी की पति साडी दिलाना चाह रहा है और पत्नी मना कर रही है , लेकिन हमारे यहाँ ऐसा ही होता है …………………..गाइड महोदय ने हमें अगले मंदिर ले जाने का बोलकर एक साड़ी की स्टोर के सामने खडा कर दिया और कहा की साहब यहाँ पर आपको बनारसी साड़ी बनारस की तुलना में लगभग आधी कीमत में मिलेगी क्योंकि यह कोई व्यावसायिक दूकान नहीं है बल्कि यहाँ सारनाथ में महिलाओं की एक सहकारी संस्था के द्वारा निर्मित साड़ियों का एक शो रूम है, उसने आगे जोड़ा …..आपकी मर्जी हो तो लेना नहीं तो कोई जोर जबरदस्ती नहीं है, देखने के कोई पैसे थोड़े ही लगते हैं। उसके इन शब्दों का महिलाओं के मन मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पडा और मेरी जेब पर नकारात्मक………..अब आप समझ ही गए होंगे। श्रीमती जी के लिए एक बनारसी साड़ी पैक करवा कर जब हम बाहर निकले तो मैंने एक चीज़ गौर की, श्रीमती जी के चेहरे से ज्यादा मुस्कान मुझे गाइड महोदय के चेहरे पर दिखाई दे रही थी।
गाइड महोदय ने बड़ी ख़ुशी से ऐलान किया की बस हो गया सारनाथ दर्शन, अब बचते हैं चौखंडी स्तूप और भगवान की विशाल प्रतिमा वाला मंदिर जो की रास्ते में पड़ते हैं, जो आपको ऑटो वाला दिखा देगा ………..और एक विजयी मुस्कान के साथ अपना पारिश्रमिक लेकर चलता बना।
यहाँ भी गाइड ने हमें मुर्ख बनाया था, जिसका खुलासा घर आने के बाद हुआ। आने के बाद मैंने नेट पर सारनाथ के बारे में एक बार फिर देखा तो मुझे पता चला की सारनाथ में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत तिब्बती मंदिर भी है जिसके बारे में गाइड ने हमें बताया ही नहीं। सो, सारनाथ की इस ट्रिप में हमने दो महत्वपूर्ण जगहें मिस कर दीं एक तो यह तिब्बती मंदिर और दुसरा सारनाथ म्यूजियम। सारनाथ म्यूजियम उस दिन शुक्रवार की वजह से बंद था।
खैर, अब हम ऑटो में आ कर बैठ गए और ऑटो वाले से चौखंडी स्तूप और एक अन्य मंदिर (मुझे अभी नाम नहीं याद आ रहा है) ले जाने के लिए कहा। यह वही मंदिर है जिसके परिसर में कुछ समय पहले ही भगवान बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा स्थापित हुई है, जिसका जिक्र जाट देवता ने भी अपनी पोस्ट में किया था लेकिन वे इसके दर्शन नहीं कर पाए थे। दरअसल जब जाट देवता सारनाथ गए थे तब इस मूर्ति का अनावरण नहीं हुआ था और यह शायद तैयार तो हो चुकी थी लेकिन ढंकी हुई थी, लेकिन हमें तो इस विशाल मूर्ति के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
कुछ देर इस मंदिर में बिताने तथा इस विशिष्ट मूर्ति को निहारने के बाद अब हम बढे चौखंडी स्तूप की ओर, सारनाथ में प्रवेश करने पर सबसे पहले चौखंडी स्तूप ही दिखाई देता है। इस स्तूप में ईंट और रोड़ी का बड़ी मात्रा में उपयोग किया गया है। यह विशाल स्तूप चारों ओर से अष्टभुजीय मीनारों से घिरा हुआ है। कहा जाता है यह स्तूप मूल रूप से सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था।
तो इस तरह से हमारा सारनाथ का यह सफ़र भी कुल मिला कर बहुत अच्छा रहा, जो लोग पहले सारनाथ जाने के इच्छुक नहीं थे अब वे यहाँ आकर अपने आपको धन्य समझ रहे थे। सारनाथ सचमुच एक बहुत ही सुन्दर जगह है, यहाँ हर जगह बस बुद्ध ही बुद्ध दिखाई देते हैं। मंदिरों में बुद्ध, दुकानों में बुद्ध, सड़क किनारे बुद्ध प्रतिमाएं. यह जगह मुझे किसी गाँव की तरह नहीं दिखाई दी, न ही किसी शहर की तरह …….ऐसा लगता है की यह जगह सिर्फ बुद्ध के लिए बसाई गई है ………..सिर्फ बुद्ध के लिए।
इस पावन जगह के दर्शन के बाद हम हमारा ऑटो हमें लेकर चल दिया हमारे होटल की ओर। चूँकि हम अपना सामान पहले से ही पैक करके रखकर आये थे अतः कुछ ही मिनटों में चेक आउट किया और पुनः ऑटो में सवार हो गए रेलवे स्टेशन के लिए। और वाराणसी रेलवे स्टेशन पर कुछ देर के इंतज़ार के बाद पटना इंदौर एक्सप्रेस हमें लेकर चल दी अपने घर की ओर …………….बाय बाय वाराणसी, बाय बाय उत्तर प्रदेश ……अब हम तो चले अपने देश।
इस अंतिम पोस्ट के साथ यह श्रंखला यहीं समाप्त करने की इजाज़त चाहता हूँ, इस वादे के साथ की जल्द ही मिलेंगे फिर किसी नई जगह पर ………….तब तक के लिए ……..हैप्पी घुमक्कड़ी।
इस श्रंखला की पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा की वाराणसी के प्रमुख मंदिर तथा रामनगर फोर्ट घुमने के बाद हम लोग होटल के अपने कमरे में आ गए तथा कुछ देर विश्राम के बाद गंगा के घाटों के दर्शन का आनंद उठाने के उद्देश्य से अब हम नाव में सवार हो गए थे और सारे घाट घुमने के बाद दशाश्वमेध घाट पर आकर जम कर बैठ गए, गंगा आरती का आनंद लेने के लिए। गंगा आरती में शामिल होकर ऐसा लग रहा था जैसे हमारा जीवन सफल हो गया। अब आगे ………………………
बनारस की दो प्रसिद्द चीजें हैं जिनके बारे में हम सब बचपन से सुनते चले आ रहे हैं, उनमें से एक है बनारस की साड़ी और दूसरा है बनारस का पान। साड़ी की बात मैं बाद में करूंगा पहले बात करते हैं पान की, तो साहब आपने अमिताभ जी का वो गाना तो सुना ही होगा खाई के पान बनारस वाला ……………..मैंने भी बहुत सूना था। और यह गाना ही क्या वैसे भी कई बार और कई मौकों पर बनारसी पान का जिक्र सुना था, तो जब बनारस जाने का प्लान हुआ तो यह निश्चित कर के गए थे की चाहे कुछ भी हो बनारस का पान तो खाकर ही आयेंगे। सास ससुर जी की भी बहुत इच्छा थी की बनारस का पान जरुर खायेंगे। और ये इच्छा वैसे भी कोई बहुत मुश्किल नहीं थी अतः गंगा आरती में शामिल होने के बाद खाना खाया और खाने के बाद सभी ने नुक्कड़ की एक पान दूकान से एक एक पान खाया। वैसे सच कहूँ तो मुझे तो बनारस के पान में कुछ ख़ास बात नहीं लगी, यह एकदम सामान्य पान था जो की हर जगह मिल जाता है और स्वाद में भी कुछ ख़ास बात नहीं थी ……………खैर, यह बनारस में हमारी आखिरी रात थी और अगला दिन आखिरी दिन। अगले दिन यानी 26 अक्तूबर को दोपहर में चार बजे वाराणसी से इंदौर के लिए हमारी ट्रेन थी।
मेरे प्लान के मुताबिक़ इस आखिरी दिन हमें सुबह से सारनाथ जाना था जहाँ से दोपहर दो बजे तक वापस वाराणसी लौट कर रेलवे स्टेशन पहुंचना था। चूँकि कविता को सारनाथ के बारे में कुछ ज्यादा जानकारी नहीं थी अतः उसका तथा मम्मी पापा का भी सारनाथ जाने के ज्यादा मन नहीं था और वे लोग सोच रहे थे के कल होटल में ही दोपहर तक आराम करेंगे और फिर रेलवे स्टेशन के लिए निकल जायेंगे। लेकिन चूँकि मुझे सारनाथ जाना ही था अतः मैंने सारनाथ के बारे में उन लोगों को कुछ जानकारी दी तो वे लोग भी राजी ख़ुशी सारनाथ जाने के लिए तैयार हो गए।
अगले दिन हमें सुबह जल्दी ही सारनाथ के लिए निकलना था क्योंकि जल्दी लौटना भी था अतः मैंने सोचा की रात में ही किसी ऑटो वाले को ठहरा लेना चाहिए, अतः मैं निकल पड़ा ऑटो की खोज में। कुछ देर बाज़ार में चहलकदमी करते हुए मैंने एक ऑटो वाले से साढ़े चार सौ रुपये में सारनाथ घुमाकर होटल तक लाने तथा वहां से रेलवे स्टेशन तक छोड़ने के लिए राजी कर लिया। क्या कहते हैं, अच्छी डील रही ना ??
सो अगले दिन सुबह सात बजे ही ऑटो वाला होटल पहुँच गया, और हम सब भी तैयार होकर उसी का इंतज़ार कर रहे थे अतः बिना देर किये हम ऑटो में सवार हो गए और ऑटो चल पड़ा सारनाथ की ओर। सारनाथ वाराणसी से इतना करीब है की इसे वाराणसी से अलग कहना मुझे उचित नहीं लगता है। कब हम वाराणसी से सारनाथ पहुँच गए, सच कहूँ तो मुझे तो पता ही नहीं चला बिलकुल उसी तरह जिस तरह हम मथुरा से वृन्दावन पहुँच जाते हैं। कुछ आधे घंटे में हम सारनाथ पहुँच गए थे, और जैसे ही हमारा ऑटो सारनाथ पहुंचा हमेशा की तरह एक गाइड महोदय न जाने कहाँ से हमारे सामने प्रकट हो गए और कहने लगे की आपको ऐसा घुमायेंगे की मज़ा आ जायेगा, मैंने कहा कितने पैसे वे बोले बस पचास रुपये दे देना, सो हमने भी उन्हें ना नहीं कहा।
सुबह का समय था और नाश्ते की इच्छा प्रबल हो रही थी अतः हमने निर्णय लिया की सबसे पहले नाश्ता किया जाए फिर आगे दर्शन किये जायेंगे अतः ऑटो स्टेंड के करीब ही स्थित एक स्टाल पर हम सब नाश्ते के लिए जमा हो गए। गरमा गरम मसाला डोसा, इडली आदि उदरस्थ करने के बाद पास ही खड़े गाइड महोदय के साथ हो लिए।
आगे बढ़ने से पहले आइये परिचय कर लें सारनाथ से – काशी अथवा वाराणसी से लगभग 10 किलोमीटर दूर स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया करते थे। उस समय इसका नाम ‘ऋषिपत्तन मृगदाय’ था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था।
सम्राट अशोक के समय में यहाँ बहुत से निर्माण-कार्य हुए। सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही लिया गया है। यहाँ का ‘धमेक स्तूप’ सारनाथ की प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक खींचातानी के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्त्व कम हो गया था। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया।
सबसे पहले हम पहुंचे धमेख स्तूप पर लेकिन उस दिन किसी विशेष कारण से धमेख स्तूप का प्रवेश द्वार बंद था और हमें इसे बाहर से ही देख पाए। यह सारनाथ की सबसे आकर्षक संरचना है। सिलेन्डर के आकार के इस स्तूप का आधार व्यास 28 मीटर है जबकि इसकी ऊंचाई 43.6 मीटर है। धमेक स्तूप को बनवाने में ईट और रोड़ी और पत्थरों को बड़ी मात्रा में इस्तेमाल किया गया है। स्तूप के निचले तल में शानदार फूलों की नक्कासी की गई है।
धमेक स्तूप के बाद हम पहुंचे मुलगंध कुटी विहार मंदिर। यह मंदिर बहुत विशाल तथा सुन्दर मंदिर है, यह आधुनिक मंदिर महाबोधि सोसाइटी द्वारा बनवाया गया है। मंदिर में बने शानदार भित्तिचित्रों को जापान के सबसे लोकप्रिय चित्रकार कोसेत्सू नोसू ने बनाया था। मंदिर में समृद्ध बौद्ध साहित्य को भी सहेजकर रखा गया है। यहां का मूलागंध कुटी मंदिर सारनाथ के प्राचीन अवशेषों में एक है। मूलागंध कुटी विहार में ही महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम बरसाती मौसम बिताया था। एक बड़ी अच्छी बात इस मंदिर में हमें लगी और वो ये थी की यहाँ मंदिर के अन्दर भी फोटो लेने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, और मंदिर के अन्दर एक सुचना पट्ट पर लिखा था की कैमरे के उपयोग पर कोई शुल्क नहीं है आप स्वेच्छा से कोई भी राशि दान पात्र में डाल सकते हैं।
मंदिर परिसर में एक बहुत बड़ा घंटा लगा हुआ है जो यहाँ पर सबके लिए आकर्षण का केंद्र होता है। मुलगंध कुटी विहार मंदिर के दर्शन के बाद हम करीब ही स्थित पवित्र बोधिवृक्ष की ओर चल पड़े। यह वाही स्थान है जहाँ पर भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश अपने पांच शिष्यों को दिया था। ऐसा कहा जाता है की सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने बोधगया स्थित पवित्र बोधि वृक्ष की एक शाखा श्रीलंका के अनुरधपूरा में लगाईं थी, उसी पेड़ की एक शाखा को यहाँ सारनाथ में लगाया गया है। गौतम बुद्ध तथा उनके शिष्यों की प्रतिमाएं म्यांमार के बौद्ध श्रद्धालुओं की सहायता से यहाँ लगाईं गई हैं। इसी परिसर में भगवान बुद्ध के अट्ठाईस रूपों की प्रतिमाएं भी स्थित हैं।
कुल मिला कर यह जगह बहुत ही सुन्दर एवं रोचक है। यहाँ पर कुछ देर रूककर तथा दर्शन करके अब हम आगे बढे जापानी मंदिर की ओर। यह मंदिर यहाँ जापानी सरकार के द्वारा बनवाया गया है एवं पूर्णतः जापानी शैली में बनाया गया है। यहाँ मंदिर के अन्दर भगवान बुद्ध की लेती अवस्था में बड़ी ही सुन्दर प्रतिमा स्थित है, यह मंदिर भी बड़ा ही सुन्दर था, और मजे की बात यह थी की सारनाथ में किसी भी मंदिर में फोटो खींचने पर प्रतिबन्ध नहीं था।
इसके बाद हम सब पहुंचे करीब ही स्थित चीनी मंदिर में, जापानी मंदिर की तरह चीनी मंदिर भी चीन की सरकार के द्वारा बनवाया गया है, इस मंदिर में चारों दीवारों पर बाहर की ओर भगवान बुद्ध की चार बड़ी बड़ी प्रतिमाएं लगाईं गई हैं। यहाँ कुछ देर रुकने तथा फोटो शोटो खींचने खिंचाने के बाद अब हमें गाइड अगले पड़ाव की और ले जा रहा था।
मैंने शुरू में आपसे बनारस की दो प्रसिद्द चीजों का ज़िक्र किया था, तो पान के बारे में तो बता चूका हूँ अब बात करते हैं साड़ी की, तो हुआ यूँ की मेरा मन था की हम बनारस से कविता के लिए बनारसी साड़ी खरीदें, लेकिन चूँकि कविता साड़ी बहुत कम पहनती हैं अतः उनका साड़ी लेने का बिलकुल मन नहीं था।
आपलोगों को बात अजीब लग रही होगी की पति साडी दिलाना चाह रहा है और पत्नी मना कर रही है , लेकिन हमारे यहाँ ऐसा ही होता है …………………..गाइड महोदय ने हमें अगले मंदिर ले जाने का बोलकर एक साड़ी की स्टोर के सामने खडा कर दिया और कहा की साहब यहाँ पर आपको बनारसी साड़ी बनारस की तुलना में लगभग आधी कीमत में मिलेगी क्योंकि यह कोई व्यावसायिक दूकान नहीं है बल्कि यहाँ सारनाथ में महिलाओं की एक सहकारी संस्था के द्वारा निर्मित साड़ियों का एक शो रूम है, उसने आगे जोड़ा …..आपकी मर्जी हो तो लेना नहीं तो कोई जोर जबरदस्ती नहीं है, देखने के कोई पैसे थोड़े ही लगते हैं। उसके इन शब्दों का महिलाओं के मन मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पडा और मेरी जेब पर नकारात्मक………..अब आप समझ ही गए होंगे। श्रीमती जी के लिए एक बनारसी साड़ी पैक करवा कर जब हम बाहर निकले तो मैंने एक चीज़ गौर की, श्रीमती जी के चेहरे से ज्यादा मुस्कान मुझे गाइड महोदय के चेहरे पर दिखाई दे रही थी।
गाइड महोदय ने बड़ी ख़ुशी से ऐलान किया की बस हो गया सारनाथ दर्शन, अब बचते हैं चौखंडी स्तूप और भगवान की विशाल प्रतिमा वाला मंदिर जो की रास्ते में पड़ते हैं, जो आपको ऑटो वाला दिखा देगा ………..और एक विजयी मुस्कान के साथ अपना पारिश्रमिक लेकर चलता बना।
यहाँ भी गाइड ने हमें मुर्ख बनाया था, जिसका खुलासा घर आने के बाद हुआ। आने के बाद मैंने नेट पर सारनाथ के बारे में एक बार फिर देखा तो मुझे पता चला की सारनाथ में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत तिब्बती मंदिर भी है जिसके बारे में गाइड ने हमें बताया ही नहीं। सो, सारनाथ की इस ट्रिप में हमने दो महत्वपूर्ण जगहें मिस कर दीं एक तो यह तिब्बती मंदिर और दुसरा सारनाथ म्यूजियम। सारनाथ म्यूजियम उस दिन शुक्रवार की वजह से बंद था।
खैर, अब हम ऑटो में आ कर बैठ गए और ऑटो वाले से चौखंडी स्तूप और एक अन्य मंदिर (मुझे अभी नाम नहीं याद आ रहा है) ले जाने के लिए कहा। यह वही मंदिर है जिसके परिसर में कुछ समय पहले ही भगवान बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा स्थापित हुई है, जिसका जिक्र जाट देवता ने भी अपनी पोस्ट में किया था लेकिन वे इसके दर्शन नहीं कर पाए थे। दरअसल जब जाट देवता सारनाथ गए थे तब इस मूर्ति का अनावरण नहीं हुआ था और यह शायद तैयार तो हो चुकी थी लेकिन ढंकी हुई थी, लेकिन हमें तो इस विशाल मूर्ति के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
कुछ देर इस मंदिर में बिताने तथा इस विशिष्ट मूर्ति को निहारने के बाद अब हम बढे चौखंडी स्तूप की ओर, सारनाथ में प्रवेश करने पर सबसे पहले चौखंडी स्तूप ही दिखाई देता है। इस स्तूप में ईंट और रोड़ी का बड़ी मात्रा में उपयोग किया गया है। यह विशाल स्तूप चारों ओर से अष्टभुजीय मीनारों से घिरा हुआ है। कहा जाता है यह स्तूप मूल रूप से सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था।
तो इस तरह से हमारा सारनाथ का यह सफ़र भी कुल मिला कर बहुत अच्छा रहा, जो लोग पहले सारनाथ जाने के इच्छुक नहीं थे अब वे यहाँ आकर अपने आपको धन्य समझ रहे थे। सारनाथ सचमुच एक बहुत ही सुन्दर जगह है, यहाँ हर जगह बस बुद्ध ही बुद्ध दिखाई देते हैं। मंदिरों में बुद्ध, दुकानों में बुद्ध, सड़क किनारे बुद्ध प्रतिमाएं. यह जगह मुझे किसी गाँव की तरह नहीं दिखाई दी, न ही किसी शहर की तरह …….ऐसा लगता है की यह जगह सिर्फ बुद्ध के लिए बसाई गई है ………..सिर्फ बुद्ध के लिए।
इस पावन जगह के दर्शन के बाद हम हमारा ऑटो हमें लेकर चल दिया हमारे होटल की ओर। चूँकि हम अपना सामान पहले से ही पैक करके रखकर आये थे अतः कुछ ही मिनटों में चेक आउट किया और पुनः ऑटो में सवार हो गए रेलवे स्टेशन के लिए। और वाराणसी रेलवे स्टेशन पर कुछ देर के इंतज़ार के बाद पटना इंदौर एक्सप्रेस हमें लेकर चल दी अपने घर की ओर …………….बाय बाय वाराणसी, बाय बाय उत्तर प्रदेश ……अब हम तो चले अपने देश।
इस अंतिम पोस्ट के साथ यह श्रंखला यहीं समाप्त करने की इजाज़त चाहता हूँ, इस वादे के साथ की जल्द ही मिलेंगे फिर किसी नई जगह पर ………….तब तक के लिए ……..हैप्पी घुमक्कड़ी।
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