साथियों, इस श्रंखला की पिछली पोस्ट में मैंने आपको हमारे बृज प्रदेश (मथुरा तथा गोकुल) के पर्यटन तथा भ्रमण की जानकारी दी थी और अब इस पोस्ट के माध्यम से मैं आपको मथुरा के निकट स्थित एक अन्य मनोहारी स्थल वृन्दावन लेकर चलूँगा। वृन्दावन वह स्थान है जहाँ भगवान श्री कृष्ण ने अपनी किशोरावस्था व्यतीत की थी तथा अपनी प्रेयसी राधारानी तथा अन्य गोपियों के साथ रास लीला रचाई थी।
आप लोगों को पता ही है की मथुरा में हमने दो दिनों के लिए एक होटल में एक चार बिस्तर वाला हॉल बुक करवाया था एवं पहले दिन मथुरा और गोकुल की सैर का आनंद लिया और अब दुसरे दिन हमें वृन्दावन जाना था। यह पूरा दिन हमने सिर्फ वृन्दावन के लिए ही रखा था, अतः हमने सोचा सुबह थोडा देर से भी निकलेंगे तो बड़े आराम से वृन्दावन घूम लेंगे क्योंकि मथुरा से वृन्दावन सिर्फ बारह किलोमीटर की ही दुरी पर है।
गोकुल से लौटने तथा थोड़ी देर आराम करने के बाद मैंने सोचा की कल के वृन्दावन भ्रमण के लिए गाडी की बात अभी से कर ली जाए तो ठीक रहेगा। पहले मैंने जायजा लेने के लिए अपने गेस्ट हाउस के आस पास खड़े एक दो ऑटो वालों से बात की तो पता चला की कोई भी ऑटो वाला सात सौ रुपये से कम में बात ही नहीं कर रहा था, मैंने सोचा की ऑटो वाले को सात सौ देने के बजाय एक बार वेन वाले से बात की जाए तो मैंने उसी वेन वाले को फोन लगाया जो हमें रेलवे स्टेशन से गेस्ट हाउस तक छोड़ कर गया था, मैंने उसका नंबर सेव करके रखा था।
मेरी एक आदत है मैं किसी का भी नंबर लेने तथा उसे सेव करने में कभी कंजूसी नहीं करता, क्या पता किसकी कब जरुरत पड़ जाए जैसे ऑटो वाला, दूध वाला, स्कुल बस वाला,सब्जी वाला, केबल वाला आदि आदि …। मेरी इस आदत से कई बार मुझे बहुत फायदा हुआ है, और वैसे भी नंबर की लिस्ट का वजन मुझे तो ढोना नहीं पड़ता है। इतने सारे नंबर रखने के बाद भी मोबाइल की फ़ोन लिस्ट की क्षमता का आधा भी उपयोग नहीं हो पाता है।
तो साहब हम बात कर रहे थे वेन की, मैंने वेन वाले को फ़ोन लगाया और उससे वृन्दावन साईट सीइंग का चार्ज पूछा तो उसने आठ सौ रुपये बताया और थोडा सा मोल भाव करने के बाद वह साढ़े सात सौ रुपये में माना और इस तरह से इस वेन वाले के साथ हमारा वृन्दावन जाना तय हुआ और उसने सुबह आठ बजे आने के लिए कहा। सुबह हम लोग थोड़ा आराम से ही जागे और करीब आठ बजे वृन्दावन के लिए तैयार हो गए, अब तक वेन वाला नहीं आया था अतः कुछ देर इंतज़ार करने के बाद मैंने उसे फ़ोन लगाया तो उसने मुझे आश्वस्त किया की वह पंद्रह मिनट में पहुँच रहा है।
हम लोग वृन्दावन के लिए करीब साढ़े आठ बजे निकले, सुबह का समय था अतः सफ़र में आनंद आ रहा था। सबसे पहले हम लोग पहुंचे पागल बाबा के मंदिर में, यह एक बहुत ही विशाल, सफ़ेद रंग में नहाया भगवान श्री कृष्ण का बड़ा ही सुन्दर मंदिर है जो की मथुरा की ही बाहरी सीमा में स्थित हैं तथा जिसे पागल बाबा (श्री श्री 1008 लीलानंद ठाकुर महाराज) के अनुयायियों ने निर्मित करवाया है। यह एक दो मंजिला मंदिर है तथा इसकी दीवारों पर संपूर्ण श्री मद भागवत गीता उकेरी हुई है।
पागल बाबा मंदिर दर्शन के बाद अब हम पहुंचे श्री कृष्ण प्रणाम परम धाम मंदिर में। यह भी बहुत सुन्दर मंदिर था तथा यहाँ पर सशुल्क यन्त्र चालित झांकियां भी थीं, हमने भी झांकियां देखीं, कृष्ण भगवान के जीवन पर आधारित ये झांकियां बड़ी ही मनमोहक थी, बच्चों को तो यह शो इतना पसंद आया की वे मंदिर से बाहर निकलने को राजी ही नहीं हो रहे थे। अब हम फिर अपने वाहन में सवार हो गए थे, ये दोनों मंदिर तो मथुरा के ही बाहरी इलाके में थे अतः मैं सोच रहा था की अब शायद मथुरा की सीमा समाप्त होगी और फिर कुछ देर के बाद वृन्दावन शुरु होगा, लेकिन मेरा सोचना गलत साबित हुआ, अभी मथुरा समाप्त ही नहीं हुआ था और ड्राईवर ने कहा की वृन्दावन आ गया। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था की ऐसे कैसे वृन्दावन आ गया।
दरअसल मथुरा एवं वृन्दावन अलग जगहें हैं लेकिन एक दुसरे से पूरी तरह से जुड़े हुए हैं, हमें एहसास ही नहीं होता की कब मथुरा गया और कब वृन्दावन आया। वृन्दावन के बस स्टॉप पर हम वेन से जैसे ही निचे उतरे, एक गाइडनुमा स्थानीय व्यक्ति अचानक से हमारे सामने प्रकट हो गया, और कहने लगा की साहब सारे मंदिर जानकारी सहित बहुत अच्छे से दर्शन करवा दूंगा मैंने चार्ज पूछा तो वह बोला की जो आपकी इच्छा हो दे देना, मैंने कहा ठीक है चलो, वैसे भी गोकुल के गाइड का हमारा अनुभव ठीक ही रहा था। सो वह आगे आगे और हम उसके पीछे हो लिये।
वृन्दावन मथुरा से 12 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में यमुना तट पर स्थित है । यह कृष्ण की लीलास्थली है । हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है । श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंद जी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे।
सबसे पहले गाइड हमें लेकर गया श्री रंगजी मंदिर में। द्रविड़ स्थापत्य शैली (दक्षिण भारतीय शैली) में निर्मित यह मंदिर बहुत विशाल बड़ा ही सुन्दर है। श्री सम्प्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था। उनके महान गुरु स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंग नाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था। इसकी लागत पैंतालीस लाख रुपये आई थी। मन्दिर के द्वार का गोपुर काफ़ी ऊँचा है। भगवान रंगनाथ के सामने साठ फीट ऊँचा और लगभग बीस फीट भूमि के भीतर धँसा हुआ तांबे का एक ध्वज स्तम्भ जिस पर सोने की परत लगाईं गई है, बनाया गया। इस अकेले स्तम्भ की लागत उस ज़माने में दस हज़ार रुपये आई थी। मंदिर के अन्दर भगवान् विष्णु की बहुत ही सुन्दर मूर्ति विराजमान है। मंदिर परिसर में ही एक सोने तथा चांदी से निर्मित विभिन्न पशु तथा पक्षियों की प्रतिमाओं की प्रदर्शनी लगी हुई है, जहाँ पर तीन रुपये का टिकिट लेकर प्रवेश लिया जा सकता है। ये मूर्तियाँ मंदिर के निर्माताओं द्वारा समय समय पर मंदिर में भेंट की गई थीं।
श्री रंग नाथ स्वामी के दर्शनों के पश्चात गाइड हमें श्री बांके बिहारी मंदिर लेकर गया, यह भी बड़ा ही सुन्दर तथा विशाल मंदिर था। यहाँ दर्शनों के पश्चात पंडित जी हमें 1100 रुपये प्रति परिवार दान करने के लिए दबाव डाल रहे थे लेकिन हम चूँकि घर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर दर्शन के लिए आये हुए थे तथा पैसों की आवश्यकता कभी भी हो सकती थी अतः हम यहाँ दान करने के इच्छुक नहीं थे और हम लोग मंदिर से बाहर आ गए, बस इसी बात से हमारे गाइड महोदय हमसे नाराज हो गए तथा उन्होंने कहा की बस हो गया मैंने आपको सारे मंदिर घुमा दिए और अब आप मेरे पैसे दे दीजिये। मैंने भी तुरंत उसे 100 रुपये देकर विदा किया, लेकिन इस घटना के बाद यह समझ में आ गया की मंदिर के पंडितों से इन गाइडों की भी जबरदस्त सेटिंग रहती है।
खैर, अब हम अनमने से बस स्टेंड की और बढे जहाँ हमारी वेन खड़ी थी, रास्ते में हमें श्री गोविन्द देव मंदिर दिखाई दिया, चूँकि मैं पहले से घर से ही यहाँ के सारे मंदिरों की लिस्ट इन्टरनेट से निकाल कर लेकर गया था, अतः गोविन्द देव मंदिर लिखा देखते ही पहचान गया की यह भी वृन्दावन के महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। गाइड तो नाराज होकर जा ही चूका था अतः मंदिर के बाहर लगे ASI के बोर्ड से ही इस मंदिर की जानकारी पढ़ी तथा मंदिर में प्रवेश किया।
गोविन्द देव जी का मंदिर ई. 1590 में बना । मंदिर के शिला लेखसे यह जानकारी पूरी तरह सुनिश्चित हो जाता है कि इस भव्य देवालय को आमेर (जयपुर राजस्थान) के राजा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह ने बनवाया था । जेम्स फर्गूसन ने लिखा है कि यह मन्दिर भारत के मन्दिरों में बड़ा शानदार है। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है ‘औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है। औरंगज़ेब, मंदिर की चमक से परेशान था, समाधान के लिए उसने तुरंत कार्यवाही के रूप में सेना भेजी। मंदिर, जितना तोड़ा जा सकता था उतना तोड़ा गया और शेष पर मस्जिद की दीवार, गुम्मद आदि बनवा दिए । मंदिर का निर्माण में 5 से 10 वर्ष लगे और लगभग एक करोड़ रुपया ख़र्चा बताया गया है। अपने प्रारंभिक दौर में यह मंदिर सात मंजिला था लेकिन अब इसकी केवल चार मंजिलें ही बची हैं।
श्री गोविन्द देव मंदिर के दर्शन के बाद अब हम अपनी वेन के पास पहुंचे तथा वेन में सवार हो गए और जैसे ही वेन कुछ दूर पहुंची मैंने वेन वाले वाले से कहा की भाई अब हमें बाकी की जगहें भी दिखाओ, तो उसने कहा की अब क्या छुट गया है, गाइड ने आपको सबकुछ तो दिखा दिया होगा। मैंने उसे गाइड के बारे में बताया की वह हमें बीच में ही छोड़ गया। मैंने चूँकि निधि वन के बारे में काफी सुन रखा था अतः वेन वाले से कहा की हमें निधि वन लेकर चलो तो उसने कहा की निधि वन तो उसी तरफ था जहां से आप अभी घूमकर आ रहे हैं। मैंने उसे वेन वापस पलटाने को कहा, उसने गाडी को वापस मोड़ा तथा फिर से उसी जगह गाडी पार्क करके वह रास्ता बताने के लिए हमारे साथ हो लिया।
हम सभी लोग निधि वन की तरफ पैदल ही चले जा रहे थे, अधीक दुरी तथा संकरी गलियाँ होने की वजह से हम समूह बना कर नहीं चल नहीं पा रहे थे तथा आगे पीछे चल रहे थे। जैसे ही हम निधि वन के द्वार पर पहुंचे और सब इकट्ठे हुए तो पता चला की कविता के पापा कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे, कुछ देर आस पास देखने के बाद पता चला की वे हमसे बिछड़ गए थे। उनसे फ़ोन पर संपर्क किया तथा उन्हें निधि वन का रास्ता बताने की बहुत कोशिश की लेकिन वे हम तक नहीं पहुँच पाए, अंत में उन्होंने हमें कहा की वे वेन के पास ही हमारा इंतज़ार करेंगे। यह सुनकर हमें थोडा सुकून मिला तथा अब हमने निधि वन में प्रवेश किया।
निधिवन, वृन्दावन का एक प्रसिद्ध स्थान जो श्री कृष्ण की महारास स्थली माना जाता है।स्वामी हरिदास इस वन में कुटी बनाकर रहते थे। यहीं पर उन्होंने श्री बाँके बिहारी जी को प्रकट किया। कहा जाता है कि वृन्दावन के बिहारी जी के प्रसिद्ध मंदिर की मूर्ति हरिदास को निधिवन से ही प्राप्त हुई थी। किंवदंती है कि यहाँ पर श्री कृष्ण एवं राधा आज भी रात्रि में रास रचाते हैं, और जो कोई भी उनकी इस रास लीला को देख लेता है वह अंधा या पागल हो जाता है, अतः यहाँ पर रात को आठ बजे के बाद किसी को भी तथा किसी भी स्थिति में प्रवेश नहीं दिया जाता है। निधि वन के बारे में आज तक चैनल पर हम एक विशेष कार्यक्रम देख चुके थे अतः इस सुन्दर जगह को साक्षात देखने में बड़ा आनंद आया। इसी लिए हम इस जगह को छोड़ने के बिलकुल मूड में नहीं थे। खैर यहाँ भी हमें सभी जगहों के बड़े अच्छे दर्शन हुए।
अब हम सब वापस अपनी वेन में आकर बैठ गये। वृन्दावन बस स्टेंड से बाहर निकलते ही मैंने ड्राईवर से पूछा की अब कहाँ ले जा रहे हो तो उसने कहा की बस हो गया अब मैं आपको मथुरा आपके होटल छोड़ देता हूँ, जबकि अभी हमने वृन्दावन का मुख्य आकर्षण यानी की इस्कॉन मंदिर जिसे यहाँ स्थानीय लोग अंग्रेजों का मंदिर भी कहते हैं, तथा कृपालु जी महाराज का प्रेम मंदिर तो देखा ही नहीं था। मैंने वेन वाले से कहा की भाइ आपने तो हमें वृन्दावन के सारे मंदिर दिखाने का कहा था, अब यहाँ उस वेन वाले ने हमें अपना असली रंग दिखाया तथा और मंदिरों के दर्शन करने से साफ़ मुकर गया। उसका कहना था की ये दोनों मंदिर थोड़े दूर हैं तथा उसके लिए आपको एक्स्ट्रा पैसे (200 रुपये) देने होंगे।
काफी माथा पच्ची एवं वाद विवाद के बाद वह हमें 100 रुपये एक्स्ट्रा लेकर ये दोनों मंदिर ले जाने को राजी हुआ। पहले वह हमें इस्कॉन मंदिर ले कर गया, लेकिन दुर्भाग्यवश जब तक हम वहां पहुंचे मंदिर बंद हो चुका था। बाहर से ही मंदिर के दर्शन करने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं था, अतः कुछ दो चार मिनट में ही वेन वाले को कोसते हुए हम वापस गाडी में सवार हो गए प्रेम मंदिर के लिए, लेकिन दुर्भाग्य ने हमारा यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा ………ओफ्फोह यह मंदिर भी बंद हो चूका था।
दरअसल यहाँ मथुरा तथा वृन्दावन में दोपहर में कुछ दो तीन घंटों के लिए मंदिर बंद हो जाते हैं तथा फिर शाम को ही खुलते हैं। इस मंदिर के भी बाहर से ही दर्शन हो पाए। वर्त्तमान समय के एक प्रसिद्द आध्यात्मिक गुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा बनवाया गया यह आधुनिक तथा नया मंदिर सचमुच इतना सुन्दर है की इसे देखते ही रहने की इच्छा होती है। मैं तो इस मंदिर को बाहर से ही देखकर प्रसन्न हो गया। अंततः एक होटल में खाना खाते हुए हम शाम चार बजे तक अपने गेस्ट हाउस पहुँच गए।
खाना तो खा ही चुके थी अतः अब सबकी इच्छा थी मथुरा की प्रसिद्द लस्सी पीने की। आज मथुरा में हमारा अंतिम दिन था अतः एक बार फिर से श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर दर्शन की इच्छा हो गई तो हमने सोचा की शाम को एक बार फिर से बाहर निकलते हैं तो श्री कृष्ण जन्मभूमि के दर्शन भी हो जायेंगे और लस्सी भी पी लेंगे, अतः हम साइकिल रिक्शे लेकर चल दिए मंदिर की और।
चूँकि आज आखिरी दिन था अतः हमने दर्शन के बाद मंदिर के सामने की दूकान से घर के लिए मथुरा के प्रसिद्ध पेड़े भी ले लिए। शाम करीब सात बजे तक हम पुनः अपने गेस्ट हाउस पहुंचे तथा कुछ देर गेस्ट हाउस के बाहर बैठने के बाद सोने के लिए चल दिए क्योंकि अगले दिन सुबह जल्दी ही हमें आगरा पहुंचना था।
अब मैं अपनी इस पोस्ट को यहीं पर समाप्त करता हूँ तथा अगली पोस्ट में आपको लेकर चलूँगा ताज महल के शहर आगरा जहाँ देखेंगे ताज महल तथा आगरा का लाल किला, वो भी एक दो नहीं चार घुमक्कड़ एक साथ, जी हाँ अगले दिन सुबह हमें हमारे चहेते, महान घुमक्कड़ जाट देवता संदीप पंवार भी अपने परिवार सहित मिलने वाले हैं। रितेश गुप्ता, जाट देवता, मुकेश भालसे तथा कविता भालसे एक ही जगह पर साथ साथ …………..आगरा में ताज महल में ………………अगले रविवार यानी 16 दिसंबर। तब तक के लिए बाय बाय ……………………….
हम भी साथ-साथ चल रहे है।
ReplyDeleteAn awesome journey. It's really a very useful when one plans to travel. I request to the writer to give more flavor to his articles by adding something about the rich food points of the particular place also.
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