Monday, 10 December 2012

मथुरा एवं गोकुल – नन्हे कन्हैया की मधुर स्मृतियाँ………..


प्रिय साथियों,
लीजिये आज फिर से उपस्थित हूँ मैं अपनी अगली यात्रा कहानी के साथ। छः भागों की इस विस्तृत श्रंखला में मैं आपको ले कर चलूँगा भगवान् कृष्ण की पवित्र भूमि यानी बृज भूमि मथुरा, गोकुल, वृन्दावन तथा उसके बाद आगरा एवं आगरा से होते हुए हम चलेंगे भगवान् विश्वनाथ की नगरी यानी वाराणसी।

Krishna………The greatest musician of this world (Picture courtesy – Google)

कई दिनों से हमारी इच्छा थी की एक एक धार्मिक यात्रा अपने तथा कविता के मम्मी पापा के साथ भी की जाए, तो इस बार निर्णय लिया गया की अपनी अगली यात्रा पर कविता के मम्मी पापा को साथ में लेकर चला जाए और जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने भी बड़ी ख़ुशी से हमारे साथ जाने में अपनी सहमती जाहिर कर दी। अब अगला कदम था स्थान के चयन का सो सबसे पहले अपने सास ससुर जी से पूछा और उन्होंने गंगा जी के दर्शन तथा स्नान की इच्छा जाहिर की।


चूँकि उन्हें गंगा स्नान की इच्छा थी और हमें वर्ष में कम से कम एक ज्योतिर्लिंग की यात्रा करनी ही होती है, अतः अब यह बात स्पष्ट हो गई की ऐसी जगह का चुनाव किया जाए जहाँ गंगा भी हो और ज्योतिर्लिंग भी, और ऐसी जगह तो बस एक ही है काशी या वाराणसी। उनकी गंगा स्नान की इच्छा तथा हमारे प्रतिवर्ष कम से कम एक ज्योतिर्लिंग के संकल्प को ध्यान में रखते हुए हम लोगों ने फटाफट निर्णय लिया की काशी ही जाना  है।
इधर पिछले कुछ वर्षों से मथुरा वृन्दावन तथा आगरा (ताज महल) की इच्छा  भी बलवती हो रही थी तो मैंने सोचा की उत्तर प्रदेश ही जा रहे हैं तो बृज भूमि, भारत की शान ताज महल तथा वाराणसी का एक सम्मिलित टूर बनाया जाए, और बस बन गया एक अच्छा सा प्लान, जिसके तहत हमें सबसे पहले ट्रेन द्वारा इंदौर से मथुरा (निजामुद्दीन एक्सप्रेस) जाना था, मथुरा में दो दिन रुक कर मथुरा गोकुल तथा वृन्दावन के स्थलों के दर्शन करने थे तथा तीसरे दिन सुबह आगरा के लिए निकलकर आगरा में ताज महल तथा आगरा का किला देखना था और उसी दिन रात में ट्रेन से (मरुधर एक्सप्रेस) वाराणसी पहुंचकर दो दिन यहाँ रूककर वाराणसी के घाट, काशी विश्वनाथ तथा अन्य मंदिर एवं आखिरी दिन सारनाथ के दर्शन करके दोपहर में वाराणसी से इंदौर के लिए ट्रेन (पटना इंदौर एक्सप्रेस) पकड़कर इंदौर पहुंचना था। यात्रा की तारीखें थीं 20 से 27 अक्टूबर।
टूर प्लान फाइनल हो जाने के बाद तुरंत ही मैंने तीनों ट्रेनों में अपना रिजर्वेशन करवा लिया। ग्रुप में मेरे परिवार से हम चार कविता के मम्मी पापा तथा मेरी साली की बेटी शाना शामिल थे, इस तरह छोटे बड़े मिला कर हम सात लोग हो गए थे।
जल्दी जल्दी एक के बाद दूसरी यात्रा पर जाने तथा वह भी तीर्थ स्थलों पर जाने की वजह से अब हमारे बच्चों का यात्राओं से मन भर गया है या यह कह लीजिये की वे बोर हो चुके हैं अतः इस टूर के मामले में भी वे कोई रूचि नहीं दिखा रहे थे, लेकिन जब उन्हें यह बताया गया की हम लोग आगरा भी जा रहे हैं ताज महल देखने के लिए तो वे ख़ुशी से झूम उठे।
कविता के मम्मी पापा पहली बार कहीं तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे अतः वे बहुत खुश थे, कविता इसलिए खुश थी की काशी में भगवान् विश्वनाथ के दर्शन होने वाले थे, बच्चे इसलिए खुश थे की उन्हें ताज महल देखने को मिलने वाला था, और मैं इसलिए खुश था क्योंकि ये सब खुश थे।
जैसे जैसे हमारी यात्रा की तारीखे करीब आ रही थीं, वैसे वैसे हमारा उत्साह एवं उत्सुकता बढती जा रही थी। यहाँ पर एक चीज़ बताना चाहूँगा की घुमक्कड़ी एक ऐसा शौक है जिससे व्यक्ति कभी भी बोर नहीं होता है, हर नए टूर पर जाने से पहले न जाने कहाँ से उतना ही उत्साह, उतनी ही उमंगें उतनी ही खुशियां दिलो दिमाग पर हावी हो जाती है जितनी हमने कभी हमारे पहले टूर  के दौरान महसूस की होती है।
सासु मां ने दो नए बड़े साइज़ के बैग ख़रीदे और ज़रूरत का सारा सामान लेकर वे लोग हमारे यहाँ दो दिन पहले यानी 18 अक्तूबर को आ गए। सफ़र में साथ ले जाने के लिए कविता ने कुछ नाश्ता तैयार कर लिया था तथा कुछ हमने बाज़ार से खरीद लिया था। शनिवार 20 अक्तूबर को हमारी ट्रेन शाम साढ़े चार बजे थी। चूँकि तीन बजे तक इंदौर पहुंचना था अतः मैंने आज हाफ डे ले लिया था बच्चों को स्कूल नहीं भेजा था। दोपहर का खाना खाकर तथा शाम का खाना घर से ही पैक करके ले जाने का प्लान था।
रितेश गुप्ता जी से मिलना- एक अद्भुत संयोग: 
यहाँ पर मैं जिक्र करना चाहूँगा हमारे एक घुमक्कड़ मित्र का जिन्हें आप सभी बहुत अच्छे से जानते ही होंगे, अपने हिन्दी यात्रा वृत्तांतों से घुमक्कड़ के पाठकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ने वाले, पाठकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले तथा घुमक्कड़ के हिन्दी खजाने को अपनी रचनाओं से समृद्ध करने के लिए जाने जानेवाले  घुमक्कड़ के एक सशक्त आधार स्तम्भ, हम सबके प्रिय श्री रितेश गुप्ता जी आगरा वाले। आप सोच रहे होंगे की मैं अपनी पोस्ट में रितेश जी का उल्लेख क्यों कर रहा हूँ? तो जी बात ऐसी है की रितेश जी से हमारी दोस्ती घुमक्कड़ के माध्यम से हुई थी और अक्सर ही उनसे फोन पर या फेसबुक पर बातें होती रहती थीं।अब अगर ब्रज भूमि एवं आगरा की यात्रा करनी हो और रितेश जी से इस बारे में सलाह न ली जाए तो फिर आखिर घुमक्कड़ से हुई इस दोस्ती का क्या मतलब, सो ऐसी ही एक बातचीत  में हमने उन्हें बताया था की हम लोग मथुरा एवं आगरा आने का प्लान कर रहे हैं, यह सुन कर वे भी बड़े खुश हुए, उन्होंने हमारे इस टूर में बहुत रूचि दिखाई और मुझसे यह कहा की इस टूर के दौरान कहीं न कहीं वे अपने परिवार सहित हमसे ज़रूर मिलेंगे अतः उन्होंने मुझे अपने टूर प्लान की एक कॉपी भेजने के लिए कहा। मैंने तुरंत ही मेल के द्वारा उन्हें अपनी इस यात्रा योजना की प्रति भेज दी। तो इस तरह से इस टूर में हमारा रितेश गुप्ता जी से मिलना तो लगभग तय हो ही गया था।
अंततः हमारी यात्रा की तिथि आ ही गई और 20 नवम्बर की दोपहर को हम सब अपनी स्पार्क से इंदौर के लिए निकल पड़े।यहाँ पर एक अप्रिय घटना घटी, हुआ ये की इंदौर शहर में घुसते ही हमारा सामना एक बेहद ईमानदार (????) पुलिस वाले से हुआ, इंदौर की एक व्यस्ततम सड़क पर गुजरते समय उसने मुझे इशारा करके गाडी साइड में खड़ी करने के लिए कहा मैंने उसके आदेश का पालन करते हुए गाडी साइड में खड़ी कर दी, उसने मुझसे पेपर दिखने के लिए कहा, वैसे तो गाडी के सारे दस्तावेज मेरे पास मौजूद थे लेकिन ड्राइविंग लाइसेंस तथा रजिस्ट्रेशन के पेपर्स की फोटोकॉपी थीं, और वो मुझसे कह रहा था की ओरिजिनल दिखाओ या फिर गाडी यहीं खड़ी कर दो और कल कोर्ट से आकर ले जाना।
वास्तव में वो मुझे हर हाल में रोकना चाह रहा था, मैं उसका मंतव्य समझ गया और बिना ज्यादा बहस किये जेब में से सौ का नोट निकाल कर उसकी और बढ़ा दिया, सौ का नोट देखते ही उसके चेहरे पे मुस्कान आ गई और उसने मुझे आगे बढ़ने का संकेत दे दिया, तब तक साढ़े तीन बज चुके थे और हमारी ट्रेन साढ़े चार बजे निकलनेवाली थी, कुछ ही देर में हम रेलवे स्टेशन पहुँच गए। पहले मैंने बाकी लोगों तथा सामान को रेलवे स्टेशन पर छोड़ा तथा मैं अपनी कंपनी के हेड ऑफिस अपनी गाडी पार्क करने के लिए  चला गया।
ट्रेन अपने सही समय पर थी तथा स्टेशन पर एक घंटे के इंतज़ार के बाद अपने नियत समय पर ट्रेन चल पड़ी और अब ट्रेन चलने के बाद हमें भी सुकून मिल रहा था। ट्रेन में ही घर से लाया खाना खाने के बाद करीब नौ बजे हम लोग अपनी अपनी बर्थ पर लेट गए। रात में रितेश जी का फ़ोन आया और उन्होंने पूछा की अब तक के सफ़र में कोई परेशानी तो नहीं आई, और उन्होंने हमें सुबह का कार्यक्रम बता दिया की वे सुबह आगरा से मथुरा पहुँच जायेंगे तथा हमें मथुरा में ही मिलेंगे।
सुबह 3.35 पर ट्रेन का मथुरा पहुँचने का समय था और हमें भी मथुरा ही उतरना था अतः मैंने अपने तथा कविता दोनों के मोबाइल में 3.00 बजे का अलार्म लगा दिया क्योंकि सुबह के तीन बजे उठना टेढ़ी खीर थी। इस ट्रेन में अक्सर ये होता है की जिन पेसेंजर्स को मथुरा उतरना होता है, सुबह साढ़े  तीन बजे वे जाग नहीं पाते और जब नींद खुलती है तब तक दिल्ली पहुँच चुके होते हैं। चूँकि हम लोग 3.35 बजे मथुरा पहुँचने वाले थे और ये एक बड़ी समस्या थी अतः मथुरा में मैंने पहले से ही फ़ोन के द्वारा एक होटल में रूम बुक करवा रखा था (लेकिन उसे पेमेंट नहीं किया था) और उससे बात भी कर रखी थी की हम लोग सुबह 4.00 बजे चेक इन करेंगे ।

मथुरा का रेलवे स्टेशन सुबह 3.35 बजे
अपने सही समय पर ट्रेन मथुरा पहुंची और हम सब सकुशल मथुरा स्टेशन पर उतर गए। प्लेटफोर्म से बाहर आते ही कई सारे ऑटो वाले हमारे पीछे लग गए, मुझे आश्चर्य हुआ की रात के तीसरे प्रहर में भी यहाँ इतने सारे ऑटो वाले उपलब्ध हैं। खैर एक मारुती ओमनी वेन वाले से बात करके हम उसमें सवार हो गए, सबसे पहले तो उसी होटल को खोजा जिसमें मैंने कमरा बुक करवाया था लेकिन यह होटल मुझे पसंद नहीं आया अतः मैंने वेन वाले से कुछ और होटल दिखाने को कहा तो वह हमें एक अच्छे होटल में लेकर गया जहाँ हमें 800 रु में  एक चार बेड वाला बड़ा कमरा मिल गया जिसमें अटैच लेट बाथ, गीजर, टीवी जैसी आधारभूत सुविधाएँ शामिल थीं। सुबह के चार बज रहे थे अतः हमने सोचा की एक नींद और ले ली जाए, वैसे भी इस समय जाग कर भी कुछ हासिल नहीं होना था, अतः हम सब सो गए, सुबह करीब सात बजे नींद खुली, उठते ही मैंने सबसे पहले रितेश जी को फ़ोन लगाया तो उन्होंने बताया की वे लोग दस बजे के करीब अपनी फेमिली के साथ मथुरा पहुँच जायेंगे और हमें जन्मभूमि मंदिर के बाहर मिलेंगे।

मथुरा में हमारा गेस्ट हाउस
मथुरा – एक परिचय:
मथुरा, भगवान कृष्ण की जन्मस्थली और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। यह वर्तमान उत्तर प्रदेश में आगरा और दिल्ली से क्रमश: 58 कि.मी उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि. मी दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है।
वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है.  इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको शत्रुघ्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था। इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है। रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है। इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था । प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है।
वराह पुराण में कहा गया है - विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। 
भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर जनपद मथुरा भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। वर्तमान में पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को विश्व में बहुत बड़ी संख्या में नागरिक आराध्य के रूप में मानते हुए दर्शनार्थ आते हैं।  (जानकारी आभार : http://hi.brajdiscovery.org)
अब हम सब लोग करीब आठ बजे तक तैयार होकर सबसे पहले यमुना नदी की ओर चल दिए, यमुना नदी का विश्राम घाट हमारे होटल से पैदल दुरी पर ही था अतः हम सब पैदल ही चल दिए। इस घाट का नाम विश्राम घाट इसलिए पड़ा क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ने कंस का वध करने के बाद यहीं पर यमुना के किनारे विश्राम किया था। यहाँ घाट पर हमने सबसे पहले यमुना जी के दर्शन किये, यहाँ पर बहुत सारे नाव वाले खड़े थे अतः एक नाव वाले से किराया ठहरा कर हम सब उस नाव में सवार हो गए। अब हमें इस नाव से ही मथुरा के एक प्रसिद्ध मंदिर श्री द्वारकाधीश मंदिर के दर्शनों के लिए जाना था। कुछ पांच मिनट में हम नाव से द्वारकाधीश मंदिर पहुँच गए। इस समय करीब नौ बज रहे थे और यहाँ मंदिर में पहुँच कर पता चला की मंदिर दस बजे खुलेगा, अब बच्चों एवं बड़ों सभी को भूख भी लग रही थी अतः हमने सोचा की इस खाली समय में नाश्ता कर लिया जाए अतः हम मंदिर के ही बगल में स्थित एक नुक्कड़ वाली स्टालनुमा दुकान में पहुंचे।

यमुना नदी में नाव की सवारी

यमुना के घाट

यमुना किनारे पक्षियों का कलरव

नाव की सवारी
मथुरा में मैंने एक विशेष बात देखी की यहाँ नाश्ते के स्टालों पर बैठने की सुविधा नहीं होती, बस खड़े खड़े नाश्ता करो, पैसे दो और चलते बनो जबकि हमारे मध्य प्रदेश में हर रेस्तौरेंट पर कम से कम बैठने की व्यवस्था तो होती ही है। खैर नाश्ता करके हम पुनः मंदिर की ओर चल दिए अब तक मंदिर खुलने का समय भी हो चूका था और मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ भी बढ़ने लगी थी।
द्वारकाधीश मंदिर :
यह मथुरा का सबसे विस्तृत पुष्टिमार्ग मंदिर है। भगवान कृष्ण को ही द्वारिकाधीश (द्वारिका का राजा) कहते हैं । मथुरा नगर के राजाधिराज बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है । ग्वालियर राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया, जिनकी मृत्यु पश्चात इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचन्द्र ने मन्दिर का निर्माण कार्य पूर्ण कराया । श्रावण के महीने में प्रति वर्ष यहाँ लाखों श्रृद्धालु सोने–चाँदी के हिंडोले देखने आते हैं। मथुरा के विश्राम घाट के निकट ही असकुंडा घाट के निकट यह मंदिर विराजमान है।  (सन्दर्भ: http://hi.brajdiscovery.org)
मंदिर में भगवान् द्वारकाधीश के दर्शन कर लेने के बाद अब हम मंदिर से बाहर आ चुके थे और अब हमारा अगला पड़ाव था श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर।

द्वारकाधीश मंदिर के सामने हमारा ग्रुप
इस बीच रितेश जी से फ़ोन से लगातार संपर्क हो रहा था और हम जैसे ही साइकिल रिक्शा पर सवार हुए वैसे ही उनका फ़ोन आ गया और उन्होंने बताया की वे लोग जन्मभूमि मंदिर पहुँच चुके हैं तथा मंदिर के बाहर खड़े हमारा इंतज़ार कर रहे हैं। अब कुछ ही मिनटों में हम एक ऐसे व्यक्ति तथा उनके परिवार से मिलने जा रहे थे जिनसे हम घुमक्कड़, फेसबुक तथा फ़ोन के माध्यम से बहुत अच्छे तरीके से परिचित थे लेकिन कभी मिले नहीं थे, मन में एक अलग ही तरह का रोमांच तथा अनुभूति हो रही थी, अंततः वह क्षण आ गया।
जैसे ही हम जन्मभूमि मंदिर पहुँच कर रिक्शा से निचे उतरे, हमें रितेश गुप्ता जी अपने परिवार सहित मिल गए, चूँकि उन्हें तथा उनके पुरे परिवार को हम घुमक्कड़ की पोस्ट्स के द्वारा देख ही चुके थे अतः पहचानने में किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं आई, उनसे तथा उनके परिवार से मिलकर हमें जो ख़ुशी मिली उसे शब्दों में बखान करना मेरे लिए नामुमकीन है। कुछ ही देर की औपचारिक बातचीत के बाद हम सब एक दुसरे से बहुत अच्छी तरह से घुल मिल  गए थे, और अब हम सब मिलकर श्री जन्मभूमि मंदिर के प्रवेश द्वार की  ओर बढ़ चले।

जन्मभूमि मंदिर और दो घुमक्कड़ परिवार
यहाँ पर एक बात बताना चाहूँगा की हम लोगों ने अब तक कई बड़े बड़े मंदिरों एवं अनेक धार्मिक स्थलों के दर्शन किये हैं लेकिन मथुरा के जन्मभूमि मंदिर जितनी सख्त चेकिंग एवं सिक्यूरिटी (सुरक्षा व्यवस्था) मैंने अपने जीवन में पहली बार देखी, खैर यहाँ के बाद हम आगरा ताज महल देखने भी गए और काशी विश्वनाथ मंदिर भी लेकिन पहरेदारी का जो आलम मैंने मथुरा के इस जन्मभूमि मंदिर का देखा वह और कहीं नहीं देखने को मिला। कतार में लगने के बाद कम से कम तीन बार मुझे तथा कविता के पापा को सुरक्षा चेक पोस्ट से लाइन से बाहर निकलना पड़ा क्योंकि हर बार कुछ न कुछ समस्या बता कर पुलिस वाले हमें लाइन से बाहर निकाल देते, आखिरी बार तो हमें इसलिए बाहर कर दिया क्योंकि मेरी पेंट की पिछली जेब में सुपारी का एक पाउच रह गया था। जबकि सारा बड़ा सामान जैसे मोबाइल, केमेरा पर्स आदि तो हम सबसे पहले ही क्लॉक रूम में जमा करा चुके थे।  खैर इस खतरनाक चेकिंग से गुजरने के बाद हम मंदिर में पहुंचे। यहाँ मंदिर दो भागों में बंटा हुआ है, एक तरफ तो कंस के काराग्रह का वह संकरा कमरा है जहाँ भगवान् श्री कृष्ण का जन्म हुआ था और दूसरी और श्री राधा कृष्ण का सुन्दर मंदिर है।
श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर/ केशव देव मंदिर :
भगवान श्रीकृष्ण का यह जन्मस्थान कंस का कारागार था, जहाँ वासुदेव ने भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की आधी रात अवतार ग्रहण किया था। आज यह कटरा केशवदेव नाम से प्रसिद्व है। यह कारागार केशवदेव के मन्दिर के रूप में परिणत हुआ। इसी के आसपास मथुरा पुरी सुशोभित हुई। यहाँ कालक्रम में अनेकानेक गगनचुम्बी भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ। इनमें से कुछ तो समय के साथ नष्ट हो गये और कुछ को विधर्मियों ने नष्ट कर दिया। 
कटरा केशवदेव-स्थित श्रीकृष्ण-चबूतरा ही भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य प्राक्ट्य-स्थली कहा जाता है। मथुरा के राजा कंस के जिस कारागार में वसुदेव-देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने जन्म-ग्रहण किया था, वह कारागार आज कटरा केशवदेव के नाम से विख्यात है और ‘इस कटरा केशवदेव के मध्य में स्थित चबूतरे के स्थान पर ही कंस का वह बन्दीगृह था, जहाँ अपनी बहन देवकी और अपने बहनोई वसुदेव को कंस ने कैद कर रखा था।
(जानकारी आभार : http://hi.brajdiscovery.org)
मंदिर में हम लोगों को बहुत अच्छी तरह से दर्शन हुए, कंस के कारागार के उस कमरे जहाँ श्री कृष्ण का जन्म हुआ था, के दर्शन करके तो बस मन प्रसन्न हो गया। यह कमरा आज भी जेल की कोठडी के सामान ही लगता है। दर्शनों के बाद मंदिर परिसर में स्थित अमानती सामान गृह से हमने हमारा सामान लिया और बाहर निकल आये। बाहर आकर हमने मंदिर के सामने स्थित दुकान से मथुरा के प्रसिद्द पेड़े घर ले जाने के लिए ख़रीदे। अब चूँकि खाने का समय भी हो चूका था और हम सभी को जोरों की भूख भी लग रही थी अतः एक अच्छा सा भोजनालय देखकर हम सभी ने खाना खाया।

शब्दों की आवश्यकता नहीं है ………..
खाना खाने के बाद अब हमारा विचार था गोकुल दर्शन का, सो हमने गोकुल जाने के लिए दो ऑटो रिक्शे तय किये क्योंकि अब रितेश जी का परिवार मिलाकर हम ग्यारह लोग हो गए थे। उत्तर प्रदेश के ऑटो रिक्शा में एक खूबी होती है की आगे ड्राईवर के आजू बाजू दोनों तरफ एक एक सीट लगी होती है अतः एक ऑटो में आसानी से पांच से छः लोग समां जाते हैं जबकि हमारे यहाँ एम पी में ऑटो रिक्शा में ये सुविधा नहीं होती अतः तीन ही लोग बैठ पाते हैं।
तो इस तरह से हम सब गोकुल के लिए रवाना हो गए। करीब पौन घंटे में हम गोकुल पहुँच गए, यहाँ पहुँच कर ऑटो वाले ने हमें एक गाइड करने की सलाह दी क्योंकि यहाँ की कुञ्ज गलियों के रास्ते बहरी पर्यटकों को नहीं मालुम होते तथा मंदिरों की जानकारी भी नहीं होती अतः यहाँ गाइड करना एक फायदे का सौदा होता है क्योंकि इनका चार्ज भी बहुत ज्यादा नहीं होता है, 100 रुपये में अगर आपके साथ कोई दो घंटे रहकर आपको सारे मंदिर घुमाये और जानकारी भी दे तो क्या बुरा है?
सबसे पहले हम उस कदम्ब के पेड़ के करीब पहुंचे जिस पर बैठ कर कन्हैया बांसुरी बजाया करते थे, और उसके बाद हम नन्द महल पहुंचे जहाँ भगवान कृष्ण पले बढे थे। इसी गोकुल की गलियों में भगवान कृष्ण का बचपन बीता था। सचमुच यहाँ बहुत सारी  छोटी छोटी गलियां देखने को मिली। इन गलियों को देखकर मुझे अनायास ही किसी हिंदी फिल्म का वो गाना याद आ गया ” गोकुल की गलियों का ग्वाला, नटखट बड़ा नंदलाला”
नन्द महल में हमने भगवान के छठी पूजन का स्थान देखा एवं वह स्थान भी देखा जहाँ उन्होंने घुटनों के बल चलना सिखा था। गोकुल में एक संस्था है जो विधवा स्त्रियों के भरण पोषण तथा रोज़गार के लिए कार्य करती है, यहाँ बहुत सारी विधवा स्त्रियाँ भगवान् का भजन कीर्तन करती हैं तथा यह संस्थान उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। गोकुल में बन्दर बहुतायत में पाए जाते हैं तथा उनसे सावधान रहने की सख्त आवश्यकता होती है वर्ना वे आपके हाथ का सामन छीन कर भाग जाते हैं। यहाँ के बंदरों को मनुष्यों के चश्मों से बहुत लगाव है, वे आपके पहने हुए चश्मे को भी छीन कर भाग सकते हैं।
गोकुल :
यह स्थल मथुरा से 15 किमी की दूरी पर यमुना के पार स्थित है। यह वैष्णव तीर्थ है। यथार्थ महावन और गोकुल एक ही है। नन्द बाबा अपने परिजनों को लेकर नन्दगाँव से महावन में बस गये। गो, गोप,गोपी आदि का समूह वास करने के कारण महावन को ही गोकुल कहा गया है। नन्दबाबा के समय गोकुल नाम का कोई पृथक् रूप में गाँव या नगर नहीं था। यथार्थ में यह गोकुल आधुनिक बस्ती है। यहाँ पर नन्दबाबा की गौशाला थी। विश्वास किया जाता है कि भगवान कृष्ण ने यहाँ की गलियों में अपने बाल सखाओं तथा बलदाऊ के साथ खेला करते थे तथा गाँव से लगे वनों में गौएँ चराया करते थे।

कदम्ब का पेड़

गोकुल की गलियाँ

नन्द महल जहाँ श्री कृष्ण का बचपन बीता


नन्द महल का एक अन्य हिस्सा

वह स्थान जहाँ श्री बाल कृष्ण ने पूतना राक्षसी का वध किया था
यह ब्रज का एक बहुत महत्वपूर्ण स्थल है। यहीं पर रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के सातवें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। मथुरा में कृष्ण के जन्म के बाद कंस के सभी सैनिकों को नींद आ गयी और वासुदेव की बेड़ियाँ खुल गयी थीं। तब वासुदेव कृष्ण को गोकुल में नन्दराय के यहाँ छोड़ आये थे। नन्दराय जी के घर लाला का जन्म हुआ है, धीरे-धीरे यह बात गोकुल में फैल गयी। सभी गोपगण, गोपियाँ, गोकुलवासी खुशियाँ मनाने लगे। सभी घर, गलियाँ चौक आदि सजाये जाने लगे और बधाइयाँ गायी जाने लगीं। कृष्ण और बलराम का पालन पोषण यही हुआ और दोनों अपनी लीलाओं से सभी का मन मोहते रहे।
घुटनों के बल चलते हुए दोनों भाई को देखना गोकुल वासियों को सुख देता था, वहीं माखन चुराकर कृष्ण ब्रज की गोपिकाओं के दुखों को हर लेते थे। गोपियाँ कृष्ण जी को छाछ और माखन का लालच देकर नचाती थीं तो कृष्ण जी बांसुरी की धुन से सभी को मन्त्र मुग्ध कर देते थे। कृष्ण ने गोकुल में रहते हुए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों को मोक्ष प्रदान किया।

नन्द महल के मंदिर के गर्भगृह में स्थित कृष्ण बलराम की मूर्तियाँ
गोकुल में दो तीन घंटे बिताने के बाद शाम तक हम लोग वापस मथुरा आ गए। रितेश जी एवं एवं उनका परिवार हमारे साथ ही हमारे होटल तक भी आये ताकि हम लोग कुछ वक़्त और साथ में बिता सकें। रितेश जी हमारे लिए उपहार स्वरुप आगरे के प्रसिद्द पेठे के दो पैकेट भी लेकर लाए थे जो उन्होंने हमें सप्रेम भेंट किये। यह गिफ्ट पाकर हमें बहुत ख़ुशी हुई, केशर फ्लेवर वाला पेठा सचमुच बहुत स्वादिष्ट था।
कुछ देर हमारे साथ और बिताने के बाद वे हमें अपने घर आगरा आने का निमंत्रण देकर बस से आगरा के लिए निकल गए। इस तरह यह दिन मथुरा तथा गोकुल घुमने में बिता और अगले दिन सुबह हमें वृन्दावन के लिए निकलना था।
अगले दिन वृन्दावन भ्रमण के लिए आपको इंतज़ार करना होगा  ……………………

4 comments:

  1. एक बात है कि किसी नेटजीवी को अपने सामने देखकर बडा मजा आता है । आपकी और रितेश जी की मुलाकात के भाव मै समझ सकता हूं और हां आप लोग शायद आगरा में भी साथ थे । चलिये आगे के इंतजार में वैसे ये पोस्ट और टूर भी कम मजेदार नही था

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  2. मनु,
    धन्यवाद इस सुन्दर टिप्पणी के लिए ............

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  3. श्रीमानजी आपने जिन शब्दों में धार्मिक यात्रा का जीवंत बर्णन किया है एसा प्रतीत होता है जैसे हम स्वयं ही इस यात्रा पर है और आपने प्रत्येक स्थान का बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रण किया है और साथ ही साथ आपने वहाँ पर स्थानीय लोगों द्वारा दर्शनार्थियों के साथ किये जाने आर्थिक शोषण(जैसा की गाइड द्वारा मंदिर में चढ़ावा न दिए जाने पर आपका साथ छोड़ना)मेरे साथ हुए बाकिये की स्म्रतियों को पुन्ह जीवंत कर गया। आपने बड़े ही बारीकी से हर पहलू को ध्यान में रख कर अपने अनुभवों को हमतक पहुंचाया है इसके लिए धन्यवाद। आशा करता हू आगे भी आप हमें अपने अनुभव और ज्ञान से सराबोर करते रहेंगे

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