हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
मुकेश भाई लगे रहो।
ReplyDeleteलेकिन ये words verification हटा दो, नहीं तो मैं नाराज हो जाऊँगा।
इनसे परेशानी होती है।
उत्कृष्ट कृति |
ReplyDeleteबुधवारीय चर्चा-
मस्त प्रस्तुति ||
charchamanch.blogspot.com
लेकिन ये words verification हटा दो,
शिवमंगल सिंह जी सुमन को पढवाया आपने .राष्ट्रीय एकता का प्रतीक 'पान' याद आगया .पान पर आपने दिया था एक लंबा वक्तव्य सागर विश्व -विद्यालय की एक गोष्ठी में .
ReplyDeleteबढ़िया रचना पढवाई आपने .
वीरुभाई,
Deleteपोस्ट को पढने तथा प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद.