साथियों,
महेश्वर यात्रा की यह दूसरी कड़ी प्रस्तुत कर रही हूँ. पिछली कड़ी में मैंने बताया था की किस तरह हम अगस्त के एक शनिवार को महेश्वर दर्शन के लिए अपनी कार से निकले. महेश्वर नगर का परिचय, महेश्वर में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर अहिल्या घाट एवं घाट पर देवी अहिल्या बाई की आदमकद प्रतिमा, उसी से लगा महेश्वर का विशाल एवं सुन्दर किला, शिवम का बोटिंग के लिए जिद करके मुंह फुला कर घाट पर बैठ जाना, बोट वाले से भाव ताव तथा अंत में उफनती हुई नर्मदा पर नाव की सवारी……………..अब आगे.
आप लोग सोच रहे होंगे की आज की पोस्ट का शीर्षक ” नर्मदा का हर कंकर है शंकर” क्यों रखा गया है, तो मैं बता देना चाहती हूँ की हिन्दू धर्म के विभिन्न शास्त्रों तथा धर्मग्रंथों के अनुसार माँ नर्मदा को यह वरदान प्राप्त था की नर्मदा का हर बड़ा या छोटा पाषण (पत्थर) बिना प्राण प्रतिष्ठा किये ही शिवलिंग के रूप में सर्वत्र पूजित होगा. अतः नर्मदा के हर पत्थर को नर्मदेश्वर महादेव के रूप में घर में लाकर सीधे ही पूजा अभिषेक किया जा सकता है.
चूँकि बात महेश्वर की हो रही है जहाँ का सम्पूर्ण सौंदर्य, सारा महत्त्व ही नर्मदा नदी का ऋणी है अतः नर्मदा मैया के गुणगान के बिना महेश्वर यात्रा एवं मेरी पोस्ट दोनों ही अधूरे हैं अतः आइये जानते हैं पुण्य सलिला सरिता माता नर्मदा के बारे में.
नर्मदा मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है. मैकाल पर्वत के अमरकंटक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है. मध्य प्रदेश के अनुपपुर जिले में विंध्य और सतपुड़ा पहाड़ों में अमरकंटक नाम का एक छोटा-सा गाँव है उसी के पास से नर्मदा एक गोमुख से निकलती है तथा तेरह सौ किलोमिटर का सफर तय करके अमरकंटक से निकलकर नर्मदा विन्ध्य और सतपुड़ा के बीच से होकर भडूच (भरुच)के पास खम्भात की खाड़ी में अरब सागर से जा मिलती है.. कहते हैं, किसी जमाने में यहाँ पर मेकल, व्यास, भृगु और कपिल आदि ऋषियों ने तप किया था. ध्यानियों के लिए अमरकंटक बहुत ही महत्व का स्थान है. नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है.
देश की सभी नदियों की अपेक्षा नर्मदा विपरित दिशा में बहती है. नर्मदा एक पहाड़ी नदी होने के कारण कई स्थानों पर इसकी धारा बहुत ऊँचाई से गिरती है. अनेक स्थानों पर यह प्राचीन और बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से सिंहनाद करती हुई गुजरती हैं.
भारत की नदियों में नर्मदा का अपना महत्व है. न जाने कितनी भूमि को इसने हरा-भरा बनाया है, कितने ही तीर्थ आज भी प्राचीन इतिहास के गवाह है. नर्मदा के जल का राजा है मगरमच्छ जिसके बारे में कहा जाता है कि धरती पर उसका अस्तित्व 25 करोड़ साल पुराना है. माँ नर्मदा मगरमच्छ पर सवार होकर ही यात्रा करती हैं, तो आओ चलते हैं हम भी नर्मदा की यात्रा पर.
धार्मिक महत्त्व:
महाभारत और रामायण ग्रंथों में इसे “रेवां” के नाम से पुकारा गया है, अत: यहाँ के निवासी इसे गंगा से भी पवित्र मानते हैं. लोग ऐसा मानते हैं कि साल में एक बार गंगा स्वयम् एक काली गाय के रूप में आकर इसमें स्नान करती एवं अपने पापों से मुक्त हो श्वेत होकर लौटती है.
नर्मदा, समूचे विश्व मे दिव्य व रहस्यमयी नदी है, इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है. इस नदी का प्राकट्य ही, विष्णु द्वारा अवतारों में किए राक्षस-वध के प्रायश्चित के लिए ही प्रभु शिव द्वारा अमरकण्टक के मैकल पर्वत पर कृपा सागर भगवान शंकर द्वारा १२ वर्ष की दिव्य कन्या के रूप में किया गया. महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया. इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में १०,००० दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किये जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है -
प्रलय में भी मेरा नाश न हो. मैं विश्व में एकमात्र पाप-नाशिनी प्रसिद्ध होऊं. मेरा हर पाषाण (नर्मदेश्वर) शिवलिंग के रूप में बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजित हो. विश्व में हर शिव-मंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान है. कई लोग जो इस रहस्य को नहीं जानते वे दूसरे पाषाण से निर्मित शिवलिंग स्थापित करते हैं ऐसे शिवलिंग भी स्थापित किये जा सकते हैं परन्तु उनकी प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है. जबकि श्री नर्मदेश्वर शिवलिंग बिना प्राण के पूजित है.
अकाल पड़ने पर ऋषियों द्वारा तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिव्य नदी नर्मदा १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हो गई तब ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की. तब नर्मदा ऋषियों से बोली कि मेरे (नर्मदा के) तट पर देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर तपस्या करने पर ही प्रभु शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है.
ग्रंथों में उल्लेख:
रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं. पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था. गुप्तकालीन अमरकोश में भी नर्मदा को ‘सोमोद्भवा’ कहा है. कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है. रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है. मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है.
गंगा हरिद्वार तथा सरस्वती कुरुक्षेत्र में अत्यंत पुण्यमयी कही गई है, किन्तु नर्मदा चाहे गाँव के बगल से बह रही हो या जंगल के बीच से, वे सर्वत्र पुण्यमयी हैं.
सरस्वती का जल तीन दिनों में, यमुनाजी का एक सप्ताह में तथा गंगाजी का जल स्पर्श करते ही पवित्र कर देता है, किन्तु नर्मदा का जल केवल दर्शन मात्र से पावन कर देता है.
नर्मदा में स्नान से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं और अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है. प्रात:काल उठकर नर्मदा का कीर्तन करता है, उसका सात जन्मों का किया हुआ पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है. नर्मदा के जल से तर्पण करने पर पितरोंको तृप्ति और सद्गति प्राप्त होती है. नर्मदा में स्नान करने, गोता लगाने, उसका जल पीने तथा नर्मदा का स्मरण एवं कीर्तन करने से अनेक जन्मों के घोर पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं. नर्मदा समस्त सरिताओं में श्रेष्ठ है. वे सम्पूर्ण जगत् को तारने के लिये ही धरा पर अवतीर्ण हुई हैं. इनकी कृपा से भोग और मोक्ष, दोनो सुलभ हो जाते हैं.
नर्मदा में प्राप्त होने वाले लिंग (नर्मदेश्वर)का महत्त्व :
धर्मग्रन्थों में नर्मदा में प्राप्त होने वाले लिंग (नर्मदेश्वर) की बडी महिमा बतायी गई है. नर्मदेश्वर(लिंग) को स्वयंसिद्ध शिवलिंग माना गया है. इनकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती. आवाहन किए बिना इनका पूजन सीधे किया जा सकता है. कल्याण के शिवपुराणांक में वर्तमान श्री विश्वेश्वर-लिंग को नर्मदेश्वर लिङ्ग बताया गया है. मेरुतंत्रके चतुर्दश पटल में स्पष्ट लिखा है कि नर्मदेश्वरके ऊपर चढे हुए सामान को ग्रहण किया जा सकता है. शिव-निर्माल्य के रूप उसका परित्याग नहीं किया जाता. बाणलिङ्ग(नर्मदेश्वर) के ऊपर निवेदित नैवेद्य को प्रसाद की तरह खाया जा सकता है. इस प्रकार नर्मदेश्वर गृहस्थों के लिए सर्वश्रेष्ठ शिवलिंग है. नर्मदा का लिङ्ग भुक्ति और मुक्ति, दोनों देता है. नर्मदा के नर्मदेश्वरअपने विशिष्ट गुणों के कारण शिव-भक्तों के परम आराध्य हैं. भगवती नर्मदा की उपासना युगों से होती आ रही हैं.
ये तो था एक परिचय माँ नर्मदा से और आइये अब पुनः रुख करते हैं हमारे यात्रा वृत्तान्त की ओर -
चूँकि नर्मदा में पानी बहुत ज्यादा था और बड़ी बड़ी लहरें चल रही थी, हमारी बोट बड़े जोर जोर से लहरों के साथ हिचकोले खा रही थी. हमें डर भी लग रहा था की कहीं कोई अनहोनी न हो जाए, अभी इसी वर्ष अप्रेल में महेश्वर में इसी जगह एक नौका पलट गई थी और उस हादसे में कुछ लोगों की जान चली गई थी अतः हमारा मन एन्जॉय करने में नहीं लग रहा था और हम दोनों सहमे हुए थे, बच्चों को कोई डर नहीं था वे दोनों तो फुल मस्ती कर रहे थे. नाव सीधी बिलकुल भी नहीं चल रही थी और लगातार दोनों तरफ झुकती जा रही थी कभी दायें तो कभी बाएं, हमारी तो जान सुख रही थी. नाव वाले ने हमारी स्थिति समझ ली थी और अब वह हमें आश्वस्त कर रहा था की आप लोग किसी तरह का टेंशन मत लीजिये आपलोगों को सही सलामत किनारे तक पहुंचाने की मेरी जिम्मेदारी है. उसके इस आश्वासन से हमारी जान में जान आई और अब हम भी नर्मदा माँ की लहरों के साथ आनंद उठा तरहे थे.
यहाँ सबसे अच्छी बात यह थी की नाव से यानी नर्मदा जी के बीचोबीच से अहिल्या घाट पर स्थित महेश्वर फोर्ट (किला) के फोटो बड़े ही अच्छे आ रहे थे अतः हमने जी भर के नाव से ही किले के बहुत सारे फोटो खींचे. अब हम उस शिव मंदिर के करीब पहुँच गए थे जो नर्मदा नदी में स्थित है.
यह मंदिर पहले एक खँडहर के रूप में था लेकिन सन 2006 में होलकर साम्राज्य के अंतिम शासक महाराजा यशवंतराव होलकर के पुत्र प्रिन्स रिचर्ड होलकर की बेटी राजकुमारी सबरीना के विवाह के उपलक्ष में स्मृति स्वरुप इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया गया.
वैसे यह मंदिर नर्मदा जी में ही स्थित है लेकिन थोड़े किनारे पर जहाँ आम तौर पर उथला पानी होता है, और भक्त जन सीढियों से चढ़ कर मंदिर के दर्शन करते हैं, लेकिन आज नर्मदा का जलस्तर बहुत अधिक होने के कारण यह मंदिर आधा जल में डूब गया था. जब हमारी नाव उस मंदिर के करीब पहुंची तो हमने नाविक से निवेदन किया की थोड़ी देर के लिए मंदिर के पास नाव रोकना हमें दर्शन करने हैं लेकिन नाविक ने बताया की मंदिर की सीढियां पूरी तरह से जलमग्न हैं आपलोग मंदिर में जाओगे कैसे, और फिर कुछ ही देर में हमारी नाव मंदिर के एकदम सामने थी और अब हमने अपनी आँखों से देख लिया की मंदिर में प्रवेश करने संभव नहीं है और हमने नाव में से ही भगवान् के हाथ जोड़ लिए और हमारी नाव वापस अहिल्या घाट की और चल पड़ी.
कुछ ही देर में हम लोग वापस अहिल्या घाट पर आ गए. सभी के चेहरों पर अपार प्रसन्नता दिखाई दे रही थी, और थकान का कोई नामोनिशान नहीं था क्योंकि हम थके ही नहीं थे, बड़े ही आराम का सफ़र था यह. महेश्वर का यह घाट इतना सुन्दर है की बस घंटों निहारते रहने का मन करता है. चारों और शिव जी के छोटे और बड़े मंदिर, हर जगह शिवलिंग ही शिवलिंग दिखाई देते हैं. सामने देखो तो मां नर्मदा अपने पुरे वेग से प्रवाहित होती दिखाई देती है, आस पास देखो तो शिव मंदिर दिखाई देते हैं और पीछे की और देखो तो महेश्वर का एतिहासिक तथा ख़ूबसूरत किला होलकर राजवंश तथा रानी देवी अहिल्या बाई के शासनकाल की गौरवगाथा का बखान करता प्रतीत होता है.
यह घाट पूरी तरह से शिवमय दिखाई देता है. पुरे घाट पर पाषाण के अनगिनत शिवलिंग निर्मित हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है की महेश्वर की महारानी देवी अहिल्या बाई से बढ़कर शिवभक्त आधुनिककाल में कोई नहीं हुआ है और उन्होंने पुरे भारत वर्ष में शिव मंदिरों का तथा घाटों का निर्माण तथा पुनरोद्धार करवाया है, जिनमें प्रमुख हैं वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर, एलोरा का घ्रश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग, सोमनाथ का प्राचीन मंदिर, महाराष्ट्र का वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर आदि. अब आप सोच सकते हैं अपनी राजधानी से इतनी दूर दूर तक उन्होंने मंदिरों तथा घाटों का निर्माण करवाया तो उनके अपने शहर, अपने निवास स्थान के घाट को जहाँ वे स्वयं नर्मदा के किनारे पर शिव अभिषेक करती थीं उसे कैसा बनवाया होगा? सोचा जा सकता है, वैसे ज्यादा सोचने की आवश्यकता नहीं है, यहाँ आइये और स्वयं देखिये…. हिन्दुस्तान का दिल (MP) आपको बुला रहा है.
लम्बा चौड़ा नर्मदा तट एवं उस पर बने अनेको सुन्दर घाट एवं पाषाण कला का सुन्दर चित्र दिखने वाला किला इस शहर का प्रमुख पर्यटन आकर्षण है. समय समय पर इस शहर की गोद में मनाये जाने वाले तीज त्यौहार, उत्सव पर्व इस शहर की रंगत में चार चाँद लगा देते हैं जिनमें शिवरात्रि स्नान, निमाड़ उत्सव, लोकपर्व गणगौर, नवरात्री, गंगादाष्मी, नर्मदा जयंती, अहिल्या जयंती एवं श्रावण माह के अंतिम सोमवार को भगवान् काशी विश्वनाथ के नगर भ्रमण की शाही सवारी प्रमुख हैं. यहाँ के पेशवा घाट, फणसे घाट, और अहिल्या घाट प्रसिद्द हैं जहाँ तीर्थयात्री शांति से बैठकर ध्यान में डूब सकते हैं. नर्मदा नदी के बालुई किनारे पर बैठकर आप यहाँ के ठेठ ग्रामीण जीवन के दर्शन कर सकते हैं. पीतल के बर्तनों में पानी ले जाती महिलायें, एक किनारे से दुसरे किनारे सामान ले जाते पुरुष एवं किल्लोल करता बचपन……….
इंदौर के बाद देवी अहिल्या बाई ने महेश्वर को ही अपनी स्थाई राजधानी बना लिया था तथा बाकी का जीवन उन्होंने यहाँ महेश्वर में ही बिताया (अपनी मृत्यु तक). मां नर्मदा का किनारा, किनारे पर सुन्दर घाट, घाट पर कई सारे शिवालय, घाट पर बने अनगिनत शिवलिंग, घाट से ही लगा उनका सुन्दर किला, किले के अन्दर उनका निजी निवास स्थान यही सब देवी अहिल्या को सुकून देता था और उनका मन यहीं रमता था और शायद इसी लिए इंदौर छोड़ कर वे हमेशा की लिए यहीं महेश्वर में आकर रहने लगी एवं महेश्वर को ही अपनी आधिकारिक राजधानी बना लिया. यहाँ के लोग आज भी देवी अहिल्या बाई को “मां साहेब” कह कर सम्मान देते हैं. महेश्वर के घाटों में, बाजारों में, मंदिरों में, गलियों में, यहाँ की वादियों में यहाँ की फिजाओं में सब दूर, हर तरफ देवी अहिल्या बाई की स्मृतियों की बयारें चलती हैं. आज भी महेश्वर की वादियों में देवी अहिल्या बाई अमर है और अमर रहेंगी.
मां नर्मदा सदियों से एक मूकदर्शक की तरह अपने इसी घाट से देवी अहिल्या बाई की भक्ति, उनकी शक्ति, उनका गौरव, उनका वैभव, उनका साम्राज्य, उनका न्याय अपलक देखती आई हैं और आज भी मां रेवा का पवित्र जल देवी अहिल्या बाई की भक्ति का साक्षी है और मां रेवा की लहरें जैसे देवी अहिल्या का गौरव गान करती प्रतीत होती है. नमामि देवी नर्मदे…..नमामि देवी नर्मेदे…….नमामि देवी नर्मदे.
भगवान् शिव, देवी अहिल्या बाई और मां नर्मदा का वर्णन लिखते लिखते मेरी आँखें भर आई हैं अतः माहौल को थोडा हल्का करने के लिए लौटती हूँ अपने यात्रा विवरण की ओर.
तो हमने अहिल्या घाट पर लगी एक दूकान से कुछ भुट्टे ख़रीदे और चल पड़े ऊपर किले की ओर. घाट पर ही सीढियों के पास एक घोड़े वाला बच्चों को घोड़े की सवारी करवा रहा था, जिसे देखकर शिवम् घोड़े पर घुमने की जिद करने लगा, हमने भी बिना किसी ना नुकुर के उसकी बात मानने में ही भलाई समझी क्योंकि अगर वो किसी चीज की जिद पकड़ लेता है तो फिर पुरे समय तंग करता है और सफ़र का मज़ा किरकिरा हो जाता है. घोड़े वाले ने शिवम् को घाट के एक दो चक्कर लगवाए और अब हम बिना देर किये किले में प्रविष्ट हो गए.
यह किला आज भी पूरी तरह से सुरक्षित है तथा बहुत ही सुन्दर तरीके से बनाया गया है और बड़ी मजबूती के साथ माँ नर्मदा के किनारे पर सदियों से डटा हुआ है. किले के अन्दर प्रवेश करते ही कुछ क़दमों की दुरी तय करने के बाद दिखाई देता है प्राचीन राज राजेश्वर महादेव मंदिर. यह एक विशाल शिव मंदिर मंदिर है जिसका निर्माण किले के अन्दर ही देवी अहिल्याबाई ने करवाया था. यह मंदिर भी किले की ही तरह पूर्णतः सुरक्षित है एवं कहीं से भी खंडित नहीं हुआ है. आज भी यहाँ दोनों समय साफ़ सफाई पूजा पाठ तथा जल अभिषेक वगैरह अनवरत जारी है. देवी अहिल्या बाई इसी मंदिर में रोजाना सुबह शाम पूजा पाठ करती थी. मंदिर के अन्दर प्रवेश वर्जित था अतः हमने बाहर से ही दर्शन किये तथा बाहर से ही जितने संभव हो सके फोटो खींचे. अब हमें थोड़ी थकान सी होने लगी थी क्योंकि काफी देर से पैदल ही घूम रहे थे.
अब मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम देती हूँ, फिर मिलेंगे इस श्रंखला के तीसरे एवं अंतिम भाग में 19 सितम्बर शाम छः बजे महेश्वर के किले, महेश्वरी साड़ी, महेश्वर राजवाड़ा, महेश्वर का हिन्दी सिनेमा से सम्बन्ध जैसे कई अनछुए पहलुओं की जानकारी के साथ…….तब तक के लिए हैप्पी घुमक्कड़ी.
(नोट- कुछ चित्र तथा जानकारी गूगल से साभार)
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