Monday, 31 October 2011

एक साक्षात्कार टाइफाईड से


कभी कभी हमारे जीवन में कुछ ऐसी त्रासदियाँ हो जाती हैं जिन्हें आत्मसात करना यदि असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल ज़रूर होता है ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ अभी कुछ दिनों पहले हुआ जिससे मैं अब तक उबरने की कोशिश कर रहा हूँ
हुआ यूँ की हमारी कालोनी में गणेशोत्सव के दौरान होने वाले रात्रिकालीन कार्यक्रमों में इस वर्ष हम सभी (मैं, कविता, संस्कृति तथा शिवम्) की भागीदारी गत वर्षों की तुलना में इस वर्ष कहीं अधिक थी और हर वर्ष की तरह समिति ने मुझे इस वर्ष भी मेरी दक्षता,कार्यकुशलता तथा अभिरुचि के अनुरूप मंच संचालन का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा था जिसे पुरे मन से सम्पन्न करना मैंने  अपना फ़र्ज़ तथा भगवान की सेवा समझा
लगातार नौ दस दिनों तक आधी आधी रात तक मंच संचालन तथा अन्य कार्यक्रम संपन्न करना तथा सुबह से शाम तक ड्यूटी भी करना, इसी उधेड़बुन में अनिद्रा, अत्यधिक थकान एवं लगातार उदबोधन करते रहने की वजह से कब मुझे एक जिद्दी एवं बेरहम रोग ने जकड लिया, मुझे पता ही नहीं चलागणेश विसर्जन के बाद से ही मुझे बुखार आने लगा था और नींद तो जैसे मुझसे पूरी तरह रूठ गयी थी, पूरी पूरी रात आँखों आँखों में ही निकल जाती और नींद का कहीं अता पता नहीं था दिन में फिर वही ड्यूटी
बस ऐसे ही कुछ शारीरिक लक्षणों की वजह से मैं अपने आप को बहुत ही असहज और असहाय महसूस करने लगा था. कुछ दिनों तक स्थानीय चिकित्सक से अपना इलाज करवाता रहा जिससे मुझे कुछ खास फायदा नहीं हुआ, अंततः जब आठ दस दिनों तक स्वास्थ्य में कुछ सुधार नहीं हुआ तो नजदीकी शहर (धार) में जाकर डॉक्टर विरुलकर से मिला तो उन्होंने मेरे स्वास्थ्य को गंभीरता से लेते हुए रक्त तथा पेशाब की कुछ जांचें करवाने के लिए निर्देशित किया, जांचें करवाई गयीं, नतीजे सामने आये तो पता चला की बाकि सब कुछ तो सामान्य है लेकिन मेरे खून में रक्त बिम्बाणुओं की संख्या (Blood  Platlet Count) बहुत कम (0.75लाखहो गयी है (सामान्य तौर पर ये संख्या 1.5 से 4.5  लाख के बिच होनी चाहिए) जिसकी वजह से शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता काफी कम हो जाती है और इसी वजह से मेरे शरीर पर बुखार अपनी मर्जी से अपने पैर पसार रहा था

यहाँ एक बात बताना मैं जरुरी समझता हूँ की मैं हर वर्ष अपने परिवार (हम दो हमारे दोके साथ अक्तूबर- नवम्बर माह में से १० दिनों के लिए धार्मिक यात्रा पर जाता हूँ विशेषकर भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करने के लिए, तो हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हमने महाराष्ट्र के शिवालयों के दर्शन के लिए अक्तूबर से  अक्तूबर के बीच अपना प्लान बनाकर उसके अनुसार रेलवे के रिजर्वेशन करवा लिए थे
धार के डॉक्टर के पास जाना हमारे टूर की नियत तारीख के तिन दिन पहले की बात है, डॉक्टर को हमने अपनी यात्रा तथा रिजर्वेशन के बारे में बताया तो उन्होंने हमें आश्वस्त किया की तिन दिन की दवाई लेने के बाद हम अपनी यात्रा पर जा सकेंगे
नियमितता से दो दिन दवाई लेने के बाद मेरी तबियत में काफी सुधर आया और हमारे यात्रा पर जाने के हौसलों में और बुलंदी आ गई थी लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था, १ नवम्बर को ही रात को हमारी ट्रेन थी और उसी सुबह बुखार ने अपना अब तक का सबसे रौद्र रूप दिखाया और सुबह नौ बजे ही मुझे अत्यधिक ठण्ड के साथ बुखार आया और मेरा पूरा शरीर असहनीय दर्द से मानो टूट रहा था कविता ने महसूस कर लिया था की अब हमारा यात्रा पर जाना लगभग असंभव है, लेकिन 103 डिग्री बुखार तथा भयंकर दर्द से कराहते हुए भी मेरी आशा की लौ अभी भी टिमटिमा रही थी और मैं उस विषम परिस्थिति में भी कविता से कहे जा रहा था की मैं शाम तक ठीक हो जाऊंगा और हम लोग टूर पर जरुर जायेंगे, दरअसल इस यात्रा पर जाने की मेरी इस तीव्र इच्छा के पीछे भी कुछ कारण थे एक तो भगवान के दर्शनों का लालच दूसरा पर्यटन का जुनूनी शौक और तीसरा कारण था एक ऐसे दोस्त से मिलने का अवसर जिसे मैं अपना परम हितैषी और सबसे अच्छा दोस्त मानता हूँ लेकिन उससे कभी मिला नहीं हूँ, उसका नाम है विशाल राठोड . मेरी दोस्ती उससे इन्टरनेट के माध्यम से घुमक्कड़.कॉम नामक वेबसाइटके जरिये हुई थी और फिर उससे फ़ोन पर और  इ मेल पर इतनी सारी बातें हुईं की कभी लगा ही नहीं की अच्छी दोस्ती के लिए मिलना भी जरुरी है, जब मैंने अपने महाराष्ट्र टूर के बारे में उसे बताया तो उसने मुझे कहा की वो अपनी फॅमिली के साथ मुझसे मिलने पुणे आएगा और हम सब साथ में ही भीमाशंकर दर्शन के लिए जायेंगे    और फिर उसने नियत तारीख को मुंबई से पुणे के लिए रिजर्वशन भी करवा लिया था अब चूँकि मैं टूर पर जाने की स्थिति में नहीं था तो मुझे सबसे ज्यादा  दुःख इसी बात का था की कितने बड़े संयोग से मुझे विशाल से मिलने का सुअवसर मिला था लेकिन वो अवसर अब हाथ से निकला जा रहा था
लगभग ग्यारह बजे तक जब बुखार नहीं उतरा तो मैंने भी भांप लिया की अब हम नहीं जा पाएंगे  और मेरी अंतरात्मा से आवाज़ आई " ऐ खुदा हर फैसला तेरा मुझे मंजूर है, सामने तेरे तेरा बंदा बहुत मजबूर है". और इसी के साथ कविता ने मुझे इंदौर ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराने की तैयारी करनी शुरू कर दी थी. अब इसे किस्मत का क्रूर मजाक कहूँ या ईश्वर की मर्ज़ी कहूँ घर में एक अजीब सी स्थिति बन गयी थी बेडरूम के एक कोने में दो बड़े बैग भरे पड़े थे जो हमने रात को ही अपनी यात्रा के लिए तैयार किये थे और अब एक तीसरा बैग तैयार किया जा रह था अस्पताल के लिए
खैर ऑफिस से जीप बुलवाई गई और हम चल पड़े एक दुखद सफ़र पर, दोनों बच्चे स्कूल में थे अतः पहले हम स्कूल गए वहां से शिवम् को लिया और बढ़ चले इंदौर अस्पताल की ओर, लगभग १ बजे हम ग्रेटर कैलाश हॉस्पिटल इंदौर में थे, कहाँ तो कैलाशपति के धाम दर्शन के लिए जाने की तैयारी थी और कहाँ पहुँच गए ग्रेटर कैलाश हॉस्पिटल में इलाज के लिए 'वाह री किस्मत' . आनन फानन में मुझे भर्ती करवा दिया गया, डॉक्टर ने चेक अप किया परचा तैयार किया और इलाज शुरू हो गया, सबसे पहले खून तथा पेशाब के नमूने लिए गए जाँच के लिए और उसके बाद शुरू हुआ सिलसिला दवाइयों का, कमरे में नर्सों तथा जूनियर डॉक्टरों का आवागमन शुरू हो गया और शुरू हुआ नसों को पंचर करने का अविरल दौर, ड्रिप्स के द्वारा कई तरह की दवाईयाँ धमनियों में पहुँचाना शुरू कर दिया गया, एक तरफ दवाईयाँ नसों में प्रवाहित की जा रही थी तो दूसरी ओर नसों से बार बार खून निकाला जा रहा था टेस्ट के लिए (कम से कम आठ बार निकला गया), हर घंटे पर शरीर का तापमान नापा जाता, शुरुआती दिनों में थर्मामीटर का पारा 101 डिग्री से 104 डिग्री के बिच झूलता रहा और निचे आने को कतई राजी नहीं था बुखार में किसी तरह की कोई रहत महसूस नहीं हो रही थी, खाने से तो जैसे बैर ही हो गया था कुछ दवाइयों के असर ने तथा कुछ बुखार की पुनरावृत्तियों ने स्वादेन्द्रियों पर ऐसा हमला किया की एक निवाला भी उदर में जाना मुश्किल था खाने से इस कदर नफरत हो गयी थी की खाने का ख्याल भी जेहन में आते ही उबकाईयां शुरू हो जाती थीं, फिर भी रोग से लड़ने की हिम्मत पैदा करने के लिए और दवाइयों के असर को दबाने के लिए खाना तो जरुरी था इसलिए कविता जबरदस्ती मेरे मुंह में खाने के कौर ठुँसती थी खाने का एक एक कौर एक एक हथौड़े के जैसा लगता था यहीं पर पहली बार महसूस किया की खाने की बिलकुल इच्छा नहीं होने पर भी खाने की कोशिश करना कितनी बड़ी सजा होती है. शरीर कमजोर होता चला जा रहा था और ज्वर का ज्वार भाटा था की थमने का नाम ही नहीं ले रहा था सुबह के समय बुखार कुछ कम होता था, जैसे जैसे दिन बीतता बुखार भी बढ़ता जाता और शाम होते होते वही 103 डिग्री
अस्पताल के प्राइवेट वार्ड का वह सर्वसुविधायुक्त वातानुकूलित कमरा जिसका किराया  2200 रु. प्रतिदिन था, मुझे किसी काराग्रह से कम नहीं लगता था सुबह शाम भगवान से एक ही प्रार्थना करता था  की हे भगवान् मुझे यहाँ से जल्दी ठीक होकर घर जाना है.
4  से 5 बार खून की जांच करने के बाद भी किसी भी रिपोर्ट में किसी बीमारी के संकेत नजर नहीं आ रहे थे सारी रिपोर्ट्स नोर्मल ही आ रही थीं, हाँ इस बिच खून की टेस्ट रिपोर्ट्स से यह जरुर पता चल गया की खून में रक्त बिम्बणुओं की संख्या अब सामान्य (2 .7  लाख ) हो गयी है. एक बात यहाँ बताना चाहूँगा की हम बचपन से एक उक्ति सुनते चले आ रहे हैं की "सच्चे हितैषी की पहचान मुसीबत के समय में ही होती है" इस उक्ति का सही मतलब मुझे इस बीमारी के दौर में बहूत अच्छे से मालूम हो गया. दोस्तों, रिश्तेदारों, सहकर्मियों अदि जिनको भी मेरे अस्पताल में भर्ती होने का समाचार मिला सबने अपने अपने तरीके से अपनी औपचारिकतायें पूरी की तथा अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली. यहाँ एक शायर की कुछ पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं " यकीं बनके लोग ज़िन्दगी में आते हैं आँखों में बसते हैं दिल में समाते हैं, पहले तो यकीं दिलाते हैं की वो हमारे हैं बाद में जाने क्यूँ तनहा छोड़ जाते हैं". कुछ करीबी रिश्तेदारों जैसे माता पिता, भाई भाभी, बहन जीजा, भी अस्पताल में आकर एकाध घंटे के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज करवा कर चलते बने. अगर कोई पुरे समय एक कर्तव्यनिष्ठ प्रहरी की तरह मेरी सेवा सुश्रुषा एवं तीमारदारी में जुटा रहा तो वो एकमात्र शख्श थी मेरी जीवनसंगिनी कविता. उसने कभी भी हार नहीं मानी, खुद कोने में जाकर आंसू बहा लेती लेकिन मुझमें हर समय सकारात्मक उर्जा फूंकने का अपना दायित्व बखूबी निभाती रही, उसी के लिए -                       " दिल दर्द के समंदर में डूब गया, मगर इन आँखों से रोया न गया, था इतना प्यार इस दिल में की उसके बगैर कब्र में भी सोया न गया" . सच ही है समय के साथ सरे रिश्तों की पकड़ ढीली होती चली जाती है चाहे वो मान बाप हो या भाई बहन, सिर्फ एक पति पत्नी का ही रिश्ता ऐसा है जिसकी पकड़ समय के साथ और मजबूत होती जाती है.
खैर वापिस चलते हैं बीमारी की और, तो यह बुखार का सिलसिला डॉक्टरों की समझ से परे होता चला जा रहा था और मेरी स्थिति दिन बा दिन बिगडती चली जा रही थी, चूँकि सही बीमारी का पता नहीं चल पा रहा था अतः डॉक्टर मलेरिया, टाइफाईड तथा वाइरल फीवर तीनो का मिश्रित इलाज़ दे रहे थे. ड्रिप स्टैंड पर एक तरफ ज्वर रोधी (Anti pyraetic) तथा दूसरी तरफ जीवाणुरोधी (Antibiotic) दवाइयों की ड्रिप एक साथ चल रही थी तथा उन ड्रिप्स में भी कई तरह के इंजेक्शंस डाले जाते थे और गोलियां अलग से खानी पड़ती थीं.
भर्ती होने के चौथे पांचवें दिन से QST (कुनेन सल्फाईट) के इंजेक्शन लगने शुरू हो गए थे जो शरीर में प्रवेश करते ही शकर की मात्रा को बुरी तरह से घटा देते थे जिससे मुझे कुछ घंटों के लिए ऐसा एहसास होता था की अब तो शारीर में कुछ भी नहीं बचा, मेरा पूरा शरीर शिथिल पड़ जाता था और शरीर में जो थोड़ी बहुत बची खुची उर्जा होती थी वो भी बेरहम कुनेन चूस लेती थी तब शकर की मात्रा की पूर्ति के लिए मुझे पानी में शक्कर घोल कर पीनी पड़ती थी तब कहीं जाकर जान में जान आती थी-" जी भर के रोये तो करार पाया, इस दौर में किसने सच्चा यार पाया, गुजर रही है ज़िन्दगी इम्तिहानों के दौर से, एक जख्म भरा नहीं की दूसरा तैयार पाया" कुल मिला कर बड़ा ही कठिन दौर चल रहा था कमरे में हम दोनों पति पत्नी ही हुआ करते थे और एक दुसरे को सांत्वना देते रहते थेअस्पताल के प्राइवेट वार्ड का वह सर्वसुविधायुक्त वातानुकूलित कमरा जिसका किराया  2200 रु. प्रतिदिन था, मुझे किसी काराग्रह से कम नहीं लगता था सुबह शाम भगवान से एक ही प्रार्थना करता था  की हे भगवान् मुझे यहाँ से जल्दी ठीक होकर घर जाना है.
भर्ती होने के कुछ सातवें या आठवें दिन एक खून की जांच में पता चला की मेरे शरीर में सेलेमोनेल्ला टाइफी नाम का एक बेक्टेरिया प्रवेश कर गया है जो की Typhoid नामक रोग का जन्मदाता है यानि अब इस बात की पुष्टि हो गई थी की मुझे Typhoid (मोतिझिरा) हो गया है , अब हमें भी इस बात की संतुष्टि हो गई थी की Typhoid ही है और कोई गंभीर रोग नहीं है. चूँकि इलाज़ तो लक्षणों के आधार पर पहले से ही Typhoid का चल ही रहा था लेकिन अब निदान हो जाने के बाद डॉक्टर ने दवाइयों में फेरबदल किया तो स्वस्थ्य में कुछ सुधार आया और पहली बार करीब 36  घंटों तक मुझे बुखार नहीं आया. इस बिच रिश्तेदारों को पता चला तो खरगोन से ससुर जी एक अभिमंत्रित तावीज एवं कुछ अभिमंत्रित दवाइयों की पुडिया भी ले आये. ३६ घंटे के बाद एक बार फिर बुखार आया जिससे हमारी चिंता और बढ़ गई और अंततः ईश्वर की अनुकम्पा से अगले 72 घंटों तक फिर बुखार नहीं आया. इस बिच हमें बुखार से जब भी थोड़ी रहत मिलती तो हम दोनों अपने टूर की कल्पना करने लगते की आज हम भीमाशंकर में होते या आज हम पुणे पहुँच गए होते आदिअस्पताल के प्राइवेट वार्ड का वह सर्वसुविधायुक्त वातानुकूलित कमरा जिसका किराया  2200 रु. प्रतिदिन था, मुझे किसी काराग्रह से कम नहीं लगता था सुबह शाम भगवान से एक ही प्रार्थना करता था  की हे भगवान् मुझे यहाँ से जल्दी ठीक होकर घर जाना है
इस केस में सबसे बड़ा संयोग ये रहा की हमारे टूर प्लान के अनुसार हमें 1  अक्टु. को रवाना होना था और 1 ता. को ही हम अस्पताल में भर्ती हुए और 9 ता. को वापस घर आना था तो अस्पताल से भी हम 9 ता. को ही डिस्चार्ज होकर घर आये. टूर के उस सपने को हमने भगवान शिव की मर्जी मानते हुए अपने सिने में ही दफ़न कर लिया है और अब बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं भोले बाबा की आज्ञा मिलने का ताकि हम अपने टूर को फिर से प्लान कर सकें. अभी भी शरीर में बहुत कमजोरी महसूस करता हूँ और दिमाग पर दवाओं के असर को आज भी महसूस करता हूँ और ईश्वर से दुआ करता हूँ की मैं पहले की ही तरह पूरी तरह से ठीक हो जाऊं

- मुकेश भालसे

Sunday, 30 October 2011

शेगांव की वह यादगार यात्रा


सर्वप्रथम सभी साथियों को मेरी और से दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें हिंदी में यात्रा वृत्तान्त लिखने का ये मेरा प्रथम प्रयास है, आशा है की मेरे इस प्रयास को आप सभी पाठकों की और से प्रोत्साहन तथा मार्ग दर्शन प्राप्त होगा तो चलिए इस बार आप लोगों को रूबरू कराता हुं एक बहुत ही पावन तथा रमणीय स्थान शेगांव से जो की संत श्री गजानन महाराज के स्थान के रूप में भारत भर में प्रसिद्ध है।  
पिछले वर्ष अक्टुबर में श्रीसैलम ज्योतिर्लिंग तथा तिरुपति बालाजी की यादगार यात्रा के बाद बहुत समय से किसी यात्रा का योग नहीं बना था, इधर एक लम्बे अरसे महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में स्थित संत श्री गजानन महाराज  के पवित्र स्थान शेगांव के बारे में सुनते चले रहे थे और पिछले एक वर्ष से वहां जाने का मन बन रहा था, अंततः अपनी इस इच्छा को मूर्त रूप देने के प्रथम प्रयास के रूप में मैंने अपने परिवार के साथ शेगांव जाने के लिए अपने करीबी शहर महू से अकोला के लिए दिनांक 21 अक्टुबर का रेलवे का रिजर्वेशन करवा लिया
अकोला से शेगांव की दुरी करीब 55 किलोमीटर है जो की बस द्वारा एक से सवा घंटे में आसानी से तय की जा सकती है खैर, नियत तारीख को हम (मैं, पत्नी कविता, बेटी संस्कृति तथा बेटा वेदांत) शाम 6 बजे अपनी शेवरोले स्पार्क कार से महू के लिए निकल पड़े, महू पहुंचकर रेलवे स्टेशन के सामने ही एक सुरक्षित जगह पर कार पार्क करके ट्रेन में सवार हो गए ट्रेन में हमें अपने सहयात्रियों से पता चला की अकोला से पहले आकोट स्टेशन पर उतर कर वहां से बस द्वारा शेगांव जाने पर हम लगभग 2 घंटे समय की बचत कर सकते हैं अतः हम सुबह 6:30 बजे आकोट रेलवे स्टेशन पर उतर गए तथा वहां से महाराष्ट्र राज्य परिवहन की बस में सवार होकर शेगांव के लिए निकल पड़े 
आकोट रेलवे स्टेशन