घुमक्कड़ी की शुरुआत तो हमने धार्मिक यात्राओं से ही की थी, लेकिन जब से
घुमक्कड़ तथा अन्य वेब साईटों पर यात्रा वर्णन पढने का शौक लगा तभी से
पर्वतीय पर्यटन स्थलों पर जाने के लिये हमेशा ललचाते रहते थे लेकिन लंबे
समय तक ऐसी कोई योजना बन नहीं पाई।
फिर जब घुमक्कड़ पर रितेश गुप्ता जी की मनाली की श्रंखला आई, उसने मुझे इतना प्रभावित किया की मैने उस श्रंखला की एक एक पोस्ट को चार पांच बार पढा और हमने मन ही मन पक्का निर्णय कर लिया की अब तो पहाड़ों पर जाना ही है।
मुझे याद है जब घुमक्कड़ की ओर से नंदन जी ने मेरा फोन पर साक्षात्कार (इंटरव्यु) लिया था तो मुझसे एक प्रश्न किया गया था की आप ने अब तक पर्वतों की सैर क्यों नही की तो मैने उन्हे बताया था की मेरी हमसफ़र कविता जी को ठंड बहुत ज्यादा लगती है और वे सामान्य से थोड़ी सी भी ज्यादा ठंड को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं, चुंकी मुझे पहाड़ों के मौसम की जानकारी नहीं थी और मैं सोचा करता था की वहां बारहों महीने सुबह शाम हर समय बस ठंड ही ठंड लगती रहती है। मेरे इस जवाब पर नंदन जी ने मुझे बताया की ऐसी बात नहीं है की पहाड़ों पर हमेशा ही ठंड लगती है, वहां भी धूप निकलती है और खास कर गर्मियों में तो दिन में तेज धूप निकलती है और गर्मी होती है, उनकी इस बात से मेरे हिमाचल जाने के निर्णय को और बल मिला, खैर वहां जाने के बाद हमने भी अनुभव किया की नंदन जी बिल्कुल सही कह रहे थे।
2013 की मई के महीने में जब इंदौर में जबर्दस्त गर्मी शुरु हुई तो एक गर्म दोपहर को कविता के मन में किसी ठंडी जगह जाने की इच्छा जाग्रत हुई और उन्होंने मुझे उसी समय औफ़िस फोन लगाया और अपनी कुल्लु-मनाली जाने की इच्छा जाहीर की, सुनकर मुझे तो बहुत ज्यादा खुशी हुई लेकिन अगले ही पल ये खुशी फ़ीकी पड़ गई क्योंकी उस समय कुछ नहीं हो सकता था, इतने कम समय में ट्रैन, होटल आदी का आरक्षण मिलना, लगभग असंभव था अत: उस समय मन को मारना पड़ा लेकिन 2014 मई के लिए ये टूर पक्का हो गया।
2014 में फ़रवरी से ही मैने हिमाचल के लिये तैयारी शुरु कर दी थी। कालोनी के एक सह्कर्मी मित्र पिछले ही वर्ष युथ होस्टल एसोसिएशन ओफ़ इंडीया के फ़ैमिली एडवेंचर कैंप
में शामिल होकर मनाली जाकर आए थे, और उन्होने जो युथ होस्टल के कैंप के
अनुभव बताए थे वे बड़े सुखद थे अत: मैंने भी ये निर्णय लिया की हम लोग भी
युथ होस्टल की सदस्यता लेकर उनके कैंप में ही जायेंगे (युथ होस्टल के बारे
में विस्तार से इस श्रंखला की पोस्ट-3 में जानकारी देने की कोशिश करुंगा)।
निर्णय होते ही फ़टाफ़ट युथ होस्टल की सदस्यता ली तथा ट्रैन एवं शिमला में
होटल का रिजर्वेशन करवा लिया।
युथ होस्टल कैंप में हमारा 4 रात तथा 5 दिन (19 से 23 मई) का पैकेज था तथा यह कैंप कुल्लु तथा मनाली के बीच पतलीकुहल कस्बे के पास एक स्थान पर ब्यास नदी के किनारे लगा था, जहां रहकर हम मनाली तथा उसके आसपास के स्थान घुम सकते थे, लेकिन मैने इस यात्रा को विस्तार देते हुए इसमें शिमला को भी जोड़ लिया और निर्णय लिया की हम लोग पहले अपने तरिके से शिमला घुमकर 19 तारिख को कैंप में शामिल हो जाएंगे, अत: 16 मई को रतलाम से अम्बाला के लिए स्वराज एक्स्प्रेस में सवार हो गए, ट्रैन का समय शाम 06.05 का था। ट्रैन आई और अपने तय समय पर चल पड़ी।
सुबह आठ बजे के लगभग ट्रैन अम्बाला पहुंची, हमें यहां से कालका पहुंचना था तथा वहां से कालका-शिमला टोय ट्रैन से शिमला। अम्बाला में दो घंटे के इन्तज़ार के बाद हमें कालका के लिये ट्रैन मिली जिसने हमें 11 बजे कालका पहुंचा दिया जहां से टोय ट्रैन (हिमालयन क्विन) 12.10 बजे थी।


जितनी उत्सुकता हमें हिमाचल घुमने की थी उतनी ही इस ट्रैन में सफ़र करने
की भी थी क्योंकी वर्षों से इस विश्व विरासत ट्रैन तथा इसके रूट के बारे
में पढते सुनते आ रहे थे।

कालका शिमला रेलवे का इतिहास:-
शिमला को रेल लिंक से जोड़ने का प्रस्ताव नवम्बर,1847 में प्रस्तुत किया गया जोकि भारतीय उप महाद्वीप मुम्बई- थाने के मध्य प्रारंभ प्रथम रेलगाड़ी से भी 6 वर्ष पूर्व दिया गया था। इस पूर्वानुमान के दो दशक के भीतर शिमला को सरकारी तौर पर ब्रिटिश इंडिया की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया तथा इस क्षेत्र में टेलीग्राफ सुविधा पहुंचने के साथ गर्मियों के दौरान लगभग एक चौथाई आबादी इस छोटे शहर की तरफ रूख करने लगी। 19वीं शताब्दी के अंतिम दौर में इस लाइन का कार्य जब पूरी तरह से आरंभ हुआ, विश्व के इस क्षेत्र के साधन सम्पन्न लोगों के लिए रेल यात्रा का आकर्षण निरंतर बढ़ता गया ।
ब्रिटिश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को कालका से जोड़ने के लिए 1896 में दिल्ली अंबाला कंपनी को इस रेलमार्ग के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। समुद्र तल से 656 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कालका (हरियाणा) रेलवे स्टेशन को छोड़ने के बाद ट्रेन शिवालिक की पहाड़ियों के घुमावदार रास्ते से गुजरते हुए 2,076 मीटर ऊपर स्थित शिमला तक जाती है। 24 जुलाई 2008 को इसे युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया।
दो फीट छह इंच की इस नैरो गेज लेन पर नौ नवंबर, १९०३ से आजतक रेल यातायात जारी है। कालका-शिमला रेलमार्ग में 103 सुरंगें और 869 पुल बने हुए हैं। इस मार्ग पर 919 घुमाव आते हैं, जिनमें से सबसे तीखे मोड़ पर ट्रेन 48 डिग्री के कोण पर घूमती है।
कर्नल बड़ोग की आत्महत्या की रोचक कहानी:-
सभवत: इस मार्ग में निर्मित सुरंगें व पुल इस लाइन को और अधिक महत्व देते है। सभी सुरंगें 1900 और 1903 के बीच बनी है और सबसे लम्बी सुरंग बड़ोग सुरंग है जोकि 1 कि.मी. से अधिक लम्बी है। इस सुरंग के पिछे भी एक रोचक कहानी है, अंग्रेजों ने इस रेल ट्रैक पर जब काम शुरू किया तो एक स्थान पर एक बड़ी पहाड़ी की वजह से ट्रैक को आगे ले जाने में दिक्कतें आने लगीं, एक बार तो हालात यह बन गए कि अंग्रेजों ने इस ट्रैक को शिमला तक पहुंचाने का काम बीच में ही छोड़ने का मन बना लिया, फ़िर एक अंग्रेज ईंजिनीयर कर्नल एस. बड़ोग को इस कार्य के लिये नियुक्त किया गया। कर्नल बड़ोग ने अपने उच्च अधिकारियों से प्रशंसा पाने तथा कार्य को आसानी से तथा कम समय में पुर्ण करने की गरज से एक युक्ति अपनाई उन्होनें यह निर्णय लिया की पहाड़ी के दोनों सिरों से एक साथ खुदाई की जाएगी और फिर एक स्थान पर दोनों तरफ़ की सुरंगों के सिरे मिल जाएंगे और काम आसानी से तथा कम समय में पुरा हो जायेगा।
बड़ोग अपनी अभीयांत्रिकिय गणनाओं के आधार पर मजदुरों को खुदाई के दिशा निर्देश देते रहे, लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजुर था, उनकी सारी गणनाएं विफ़ल हो गईं और कई प्रयासों के बाद भी दोनों तरफ़ की सुरंगों के छोर आपस में नहीं मिल पाए। अत्यधिक प्रयास करने के बाद यह माना गया कि सुरंग के दोनों सिरे आपस में नही मिल पाएंगे। इस विफलता के लिए इंजीनियर कर्नल बड़ोग को जिम्मेदार ठहराया गया तथा दंड्स्वरूप उन पर 1 रूपये का जुर्माना किया गया। विफ़लता के दंश, बदनामी तथा कुंठा से परेशान होकर तथा कार्य की असफलता से हतोत्साहित होकर बड़ोग ने उसी अधुरी सुरंग के अंदर जाकर पहले अपने प्रिय पालतु कुत्ते तथा बाद में अपने आपको गोली मार ली। इसके पश्चात इस स्थान एवं स्टेशन तथा गांव का नाम उनके नाम पर बड़ोग रखा गया।
आज भी वर्तमान सुरंग से 1 कि.मी. ऊपर घने ओक एवं पाइन से घिरी इस असफ़ल सुरंग को देखा जा सकता है। कहते हैं की कर्नल बड़ोग का भूत आज भी यदा कदा इस पुरानी सुरंग के आसपास घुमते हुए दिखाई दे जाता है। कर्नल बड़ोग की आत्महत्या के बाद नई सुरंग का निर्माण कार्य उसी पहाड़ी पर एक किलोमीटर दुर अन्य स्थान पर मुख्य अभीयंता एच.एस. हैरिंगटन के पर्यवेक्षण में पुन: प्रारंभ किया गया जो पुर्णत: सफ़ल हुआ और आज ट्रैन इसी सुरंग से होकर गुजरती है।



लगभग सौ वर्ष पूर्व, यह दुर्गम क्षेत्र जहां पर मामूली कृषि कार्य किया
जाता था, में उस समय कुछ परिवर्तन आया जब स्टीम द्वारा चलने वाले पाइल
ड्राइवरों,फावड़ों,सुरंग खोदने वाले उपकरणों सहित कर्मचारियों को देखा गया।
कालका-शिमला रेलवे लाइन का निर्माण संसार के सबसे चुनौतीपूर्ण इंजीनियरिंग
कार्यों में से था क्योंकि जब यह पूर्ण होगा तो यह 96.54 कि.मी. पर्वतीय
ट्रैक को कवर करेगा और कालका से 640 मीटर अति उष्णता से अधिक ठंड वाले
क्षेत्र में स्वास्थ्यवर्ध्दक शिमला की ओर 2,060 मीटर की ऊंचाई तक जाएगा।
इस लाइन की उस समय निर्माण लागत 1,71,07,748 रूपये थी। इस लाइन को बनाना जितना मंहगा था इसका अनुरक्षण भी उतना ही मंहगा। टिनी कोचों के साथ टाँय ट्रेन कटी हुई झाड़ियों और तिरछी छतों के बीच से होकर गुजरती हैं। इस मार्ग में यात्रा करने का अपना ही सुखद अनुभव है और पर्वतीय क्षेत्र की इस यात्रा के प्रत्येक मोड़ पर एक नया अध्याय जुड़ता है। जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, पार्श्व में इंजन की सीटी के साथ गाड़ी की आवाज गूंजती रहती है। यह लाइन भूरी पहाड़ियों, बांस, कैक्ट्स एवं उभरी हुए चट्टानों से होती हुई अलपाइन के वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हिमालय की तलहटी तक पहुंचती है। लाइन के साथ-साथ झाड़ियां तथा पाइन वृक्ष बीच-बीच में दिखाई पड़ते है। लम्बी यात्रा के दौरान मनोहारी दृश्य निरंतर दिखते रहते है, शिमला से पहले के कुछ किलोमीटर यह ओक और रोडोडेंड्रन के घने जंगलों से होकर गुजरती है।
पहाड़ों का सीना चीरकर बनाया गया यह पर्वतीय रेल मार्ग सचमुच देखने लायक है, जीवन में कम से कम एक बार इस ट्रैन में बैठकर स्थापत्य कला के बेजोड़ नमुने इस रेल मार्ग का अनुभव हर किसी को अवश्य लेना चाहिये। 15 से 20 किलोमीटर प्रति घंटा की कछुए की रफ़्तार से चलने वाली इस ट्रैन में बैठकर आप हिमाचल के प्रारंभिक पर्वतों को करीब से तथा इत्मीनान से निहारने का मौका पा सकते हैं। यह ट्रैन कालका से शिमला के 96 किलोमीटर के सफ़र को 6 से 7 घंटे में तय करती है। वैसे टैक्सी या बस के द्वारा भी कालका से शिमला मात्र 3 घंटे में पहुंचा जा सकता है लेकिन फिर भी शिमला जाने वाले हर पर्यटक की इच्छा इसी ट्रैन से शिमला जाने की होती है और जिसे इस ट्रैन का टिकट मिल जाता है वह अपने आप को भाग्यशाली समझता है। मैनें भी इस रुट की एक टोय ट्रैन हिमालयन क्विन में रिजर्वेशन करवा लिया था।
तय समय पर ट्रैन कालका से चल पड़ी। यह एक पांच डिब्बों की छोटी सी चेयर कार ट्रैन थी जिसमें शीशे की बड़ी बड़ी खिड़कीयां विशेष रुप से पर्यटकों के द्रष्यावलोकन के लिये लगाई गईं हैं ताकी यात्री बाहर के खुबसूरत नज़ारों को बिना परेशानी के देख सकें।
पहली बार पहाड़ों पर जा रहे थे अत: मन में दो बातों की उत्सुकता थी की पहली यह की पहाड़ कब तथा कहां से शुरु होंगे और दुसरी यह की ठंडा मौसम कहां से शुरु हो जाएगा, क्योंकी कालका तक तो जमीन प्लेन ही थी और जबर्दस्त गर्मी भी लग रही थी।






ट्रैन कालका स्टेशन से निकलकर शहर से होते हुए जा रही थी तभी कुछ दुरी
तय करते ही अनुभव हो गया की पहाड़ कालका शहर से ही शुरु हो जाते हैं और
कालका से निकलते ही ठंडी हवा के झोंके भी शुरु हो गए, खैर हम तो यह सोचकर
ही रोमांचित हुए जा रहे थे की हम टोय ट्रैन में बैठकर शिमला जा रहे हैं।
कालका के बाद ट्रैन लगातार उंचाई पर चढती जा रही थी, न ढलान न समतल सिर्फ़ चढाई। मन में ढेर सारा रोमांच, हिमाचल में होने का एह्सास, छोटी सी खिलौना रेलगाड़ी, सुहावना मौसम, ठंडी हवाओं के झोंके, खुबसूरत वादियां, घुमावदार ट्रेक, हर दो मिनट के बाद एक सुरंग तथा कई सारे पुल, छोटे छोटे तथा सुंदर रेल्वे स्टेशन जो की आम रेल्वे स्टेशनों से एकदम अलग थे, आकर्षक तथा मनमोहक डिज़ाईनों में बने स्टेशन भवन सब कुछ इतना अच्छा लग रहा था जैसे ये हकीकत न होकर कोई सपना हो।
हमलोग तथा ट्रैन में सवार सभी सहयात्री इस सफ़र का भरपूर आनंद ले रहे थे, हर कोई इन अनमोल नज़ारों को अपने कैमरों में कैद कर लेना चाहता था, फोटोग्राफ़ी की तो जैसे होड़ लगी हुई थी। अभी तो शिमला दूर था, सोच रहे थे यहीं इतना सुंदर लग रहा है तो शिमला कैसा होगा?
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
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

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कालका शिमला रेल्वे के मध्य आनेवाले स्टेशनों की सुची :
0 किमी कालका
6 किमी टकसाल
11 किमी गुम्मन
17 किमी कोटी
27 किमी सनवारा
33 किमी धर्मपुर
39 किमी कुमारहट्टी
43 किमी बड़ोग
47 किमी सोलन
53 किमी सलोगड़ा
59 किमी कंडाघाट
65 किमी कनोह
73 किमी कैथलीघाट
78 किमी शोघी
85 किमी तारादेवी
90 किमी टोटु (जतोग)
93 किमी समर हिल
96 किमी शिमला
इस खुबसूरत सफ़र का आनंद उठाते हुए शाम करीब 6.30 पर हम शिमला रेल्वे स्टेशन पर पहुंच गए. आगे की कहानी पढने तथा शिमला दर्शन के लिये इन्तज़ार किजीए ……
फिर जब घुमक्कड़ पर रितेश गुप्ता जी की मनाली की श्रंखला आई, उसने मुझे इतना प्रभावित किया की मैने उस श्रंखला की एक एक पोस्ट को चार पांच बार पढा और हमने मन ही मन पक्का निर्णय कर लिया की अब तो पहाड़ों पर जाना ही है।
मुझे याद है जब घुमक्कड़ की ओर से नंदन जी ने मेरा फोन पर साक्षात्कार (इंटरव्यु) लिया था तो मुझसे एक प्रश्न किया गया था की आप ने अब तक पर्वतों की सैर क्यों नही की तो मैने उन्हे बताया था की मेरी हमसफ़र कविता जी को ठंड बहुत ज्यादा लगती है और वे सामान्य से थोड़ी सी भी ज्यादा ठंड को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं, चुंकी मुझे पहाड़ों के मौसम की जानकारी नहीं थी और मैं सोचा करता था की वहां बारहों महीने सुबह शाम हर समय बस ठंड ही ठंड लगती रहती है। मेरे इस जवाब पर नंदन जी ने मुझे बताया की ऐसी बात नहीं है की पहाड़ों पर हमेशा ही ठंड लगती है, वहां भी धूप निकलती है और खास कर गर्मियों में तो दिन में तेज धूप निकलती है और गर्मी होती है, उनकी इस बात से मेरे हिमाचल जाने के निर्णय को और बल मिला, खैर वहां जाने के बाद हमने भी अनुभव किया की नंदन जी बिल्कुल सही कह रहे थे।
2013 की मई के महीने में जब इंदौर में जबर्दस्त गर्मी शुरु हुई तो एक गर्म दोपहर को कविता के मन में किसी ठंडी जगह जाने की इच्छा जाग्रत हुई और उन्होंने मुझे उसी समय औफ़िस फोन लगाया और अपनी कुल्लु-मनाली जाने की इच्छा जाहीर की, सुनकर मुझे तो बहुत ज्यादा खुशी हुई लेकिन अगले ही पल ये खुशी फ़ीकी पड़ गई क्योंकी उस समय कुछ नहीं हो सकता था, इतने कम समय में ट्रैन, होटल आदी का आरक्षण मिलना, लगभग असंभव था अत: उस समय मन को मारना पड़ा लेकिन 2014 मई के लिए ये टूर पक्का हो गया।
युथ होस्टल कैंप में हमारा 4 रात तथा 5 दिन (19 से 23 मई) का पैकेज था तथा यह कैंप कुल्लु तथा मनाली के बीच पतलीकुहल कस्बे के पास एक स्थान पर ब्यास नदी के किनारे लगा था, जहां रहकर हम मनाली तथा उसके आसपास के स्थान घुम सकते थे, लेकिन मैने इस यात्रा को विस्तार देते हुए इसमें शिमला को भी जोड़ लिया और निर्णय लिया की हम लोग पहले अपने तरिके से शिमला घुमकर 19 तारिख को कैंप में शामिल हो जाएंगे, अत: 16 मई को रतलाम से अम्बाला के लिए स्वराज एक्स्प्रेस में सवार हो गए, ट्रैन का समय शाम 06.05 का था। ट्रैन आई और अपने तय समय पर चल पड़ी।
सुबह आठ बजे के लगभग ट्रैन अम्बाला पहुंची, हमें यहां से कालका पहुंचना था तथा वहां से कालका-शिमला टोय ट्रैन से शिमला। अम्बाला में दो घंटे के इन्तज़ार के बाद हमें कालका के लिये ट्रैन मिली जिसने हमें 11 बजे कालका पहुंचा दिया जहां से टोय ट्रैन (हिमालयन क्विन) 12.10 बजे थी।
अम्बाला रेल्वे स्टेशन
अम्बाला से कालका की ओर
कालका रेल्वे स्टेशन
शिमला को रेल लिंक से जोड़ने का प्रस्ताव नवम्बर,1847 में प्रस्तुत किया गया जोकि भारतीय उप महाद्वीप मुम्बई- थाने के मध्य प्रारंभ प्रथम रेलगाड़ी से भी 6 वर्ष पूर्व दिया गया था। इस पूर्वानुमान के दो दशक के भीतर शिमला को सरकारी तौर पर ब्रिटिश इंडिया की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया तथा इस क्षेत्र में टेलीग्राफ सुविधा पहुंचने के साथ गर्मियों के दौरान लगभग एक चौथाई आबादी इस छोटे शहर की तरफ रूख करने लगी। 19वीं शताब्दी के अंतिम दौर में इस लाइन का कार्य जब पूरी तरह से आरंभ हुआ, विश्व के इस क्षेत्र के साधन सम्पन्न लोगों के लिए रेल यात्रा का आकर्षण निरंतर बढ़ता गया ।
ब्रिटिश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को कालका से जोड़ने के लिए 1896 में दिल्ली अंबाला कंपनी को इस रेलमार्ग के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। समुद्र तल से 656 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कालका (हरियाणा) रेलवे स्टेशन को छोड़ने के बाद ट्रेन शिवालिक की पहाड़ियों के घुमावदार रास्ते से गुजरते हुए 2,076 मीटर ऊपर स्थित शिमला तक जाती है। 24 जुलाई 2008 को इसे युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया।
दो फीट छह इंच की इस नैरो गेज लेन पर नौ नवंबर, १९०३ से आजतक रेल यातायात जारी है। कालका-शिमला रेलमार्ग में 103 सुरंगें और 869 पुल बने हुए हैं। इस मार्ग पर 919 घुमाव आते हैं, जिनमें से सबसे तीखे मोड़ पर ट्रेन 48 डिग्री के कोण पर घूमती है।
कर्नल बड़ोग की आत्महत्या की रोचक कहानी:-
सभवत: इस मार्ग में निर्मित सुरंगें व पुल इस लाइन को और अधिक महत्व देते है। सभी सुरंगें 1900 और 1903 के बीच बनी है और सबसे लम्बी सुरंग बड़ोग सुरंग है जोकि 1 कि.मी. से अधिक लम्बी है। इस सुरंग के पिछे भी एक रोचक कहानी है, अंग्रेजों ने इस रेल ट्रैक पर जब काम शुरू किया तो एक स्थान पर एक बड़ी पहाड़ी की वजह से ट्रैक को आगे ले जाने में दिक्कतें आने लगीं, एक बार तो हालात यह बन गए कि अंग्रेजों ने इस ट्रैक को शिमला तक पहुंचाने का काम बीच में ही छोड़ने का मन बना लिया, फ़िर एक अंग्रेज ईंजिनीयर कर्नल एस. बड़ोग को इस कार्य के लिये नियुक्त किया गया। कर्नल बड़ोग ने अपने उच्च अधिकारियों से प्रशंसा पाने तथा कार्य को आसानी से तथा कम समय में पुर्ण करने की गरज से एक युक्ति अपनाई उन्होनें यह निर्णय लिया की पहाड़ी के दोनों सिरों से एक साथ खुदाई की जाएगी और फिर एक स्थान पर दोनों तरफ़ की सुरंगों के सिरे मिल जाएंगे और काम आसानी से तथा कम समय में पुरा हो जायेगा।
बड़ोग अपनी अभीयांत्रिकिय गणनाओं के आधार पर मजदुरों को खुदाई के दिशा निर्देश देते रहे, लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजुर था, उनकी सारी गणनाएं विफ़ल हो गईं और कई प्रयासों के बाद भी दोनों तरफ़ की सुरंगों के छोर आपस में नहीं मिल पाए। अत्यधिक प्रयास करने के बाद यह माना गया कि सुरंग के दोनों सिरे आपस में नही मिल पाएंगे। इस विफलता के लिए इंजीनियर कर्नल बड़ोग को जिम्मेदार ठहराया गया तथा दंड्स्वरूप उन पर 1 रूपये का जुर्माना किया गया। विफ़लता के दंश, बदनामी तथा कुंठा से परेशान होकर तथा कार्य की असफलता से हतोत्साहित होकर बड़ोग ने उसी अधुरी सुरंग के अंदर जाकर पहले अपने प्रिय पालतु कुत्ते तथा बाद में अपने आपको गोली मार ली। इसके पश्चात इस स्थान एवं स्टेशन तथा गांव का नाम उनके नाम पर बड़ोग रखा गया।
आज भी वर्तमान सुरंग से 1 कि.मी. ऊपर घने ओक एवं पाइन से घिरी इस असफ़ल सुरंग को देखा जा सकता है। कहते हैं की कर्नल बड़ोग का भूत आज भी यदा कदा इस पुरानी सुरंग के आसपास घुमते हुए दिखाई दे जाता है। कर्नल बड़ोग की आत्महत्या के बाद नई सुरंग का निर्माण कार्य उसी पहाड़ी पर एक किलोमीटर दुर अन्य स्थान पर मुख्य अभीयंता एच.एस. हैरिंगटन के पर्यवेक्षण में पुन: प्रारंभ किया गया जो पुर्णत: सफ़ल हुआ और आज ट्रैन इसी सुरंग से होकर गुजरती है।
बड़ोग स्टेशन
वर्तमान बड़ोग सुरंग
पुरानी असफ़ल सुरंग
इस लाइन की उस समय निर्माण लागत 1,71,07,748 रूपये थी। इस लाइन को बनाना जितना मंहगा था इसका अनुरक्षण भी उतना ही मंहगा। टिनी कोचों के साथ टाँय ट्रेन कटी हुई झाड़ियों और तिरछी छतों के बीच से होकर गुजरती हैं। इस मार्ग में यात्रा करने का अपना ही सुखद अनुभव है और पर्वतीय क्षेत्र की इस यात्रा के प्रत्येक मोड़ पर एक नया अध्याय जुड़ता है। जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, पार्श्व में इंजन की सीटी के साथ गाड़ी की आवाज गूंजती रहती है। यह लाइन भूरी पहाड़ियों, बांस, कैक्ट्स एवं उभरी हुए चट्टानों से होती हुई अलपाइन के वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हिमालय की तलहटी तक पहुंचती है। लाइन के साथ-साथ झाड़ियां तथा पाइन वृक्ष बीच-बीच में दिखाई पड़ते है। लम्बी यात्रा के दौरान मनोहारी दृश्य निरंतर दिखते रहते है, शिमला से पहले के कुछ किलोमीटर यह ओक और रोडोडेंड्रन के घने जंगलों से होकर गुजरती है।
पहाड़ों का सीना चीरकर बनाया गया यह पर्वतीय रेल मार्ग सचमुच देखने लायक है, जीवन में कम से कम एक बार इस ट्रैन में बैठकर स्थापत्य कला के बेजोड़ नमुने इस रेल मार्ग का अनुभव हर किसी को अवश्य लेना चाहिये। 15 से 20 किलोमीटर प्रति घंटा की कछुए की रफ़्तार से चलने वाली इस ट्रैन में बैठकर आप हिमाचल के प्रारंभिक पर्वतों को करीब से तथा इत्मीनान से निहारने का मौका पा सकते हैं। यह ट्रैन कालका से शिमला के 96 किलोमीटर के सफ़र को 6 से 7 घंटे में तय करती है। वैसे टैक्सी या बस के द्वारा भी कालका से शिमला मात्र 3 घंटे में पहुंचा जा सकता है लेकिन फिर भी शिमला जाने वाले हर पर्यटक की इच्छा इसी ट्रैन से शिमला जाने की होती है और जिसे इस ट्रैन का टिकट मिल जाता है वह अपने आप को भाग्यशाली समझता है। मैनें भी इस रुट की एक टोय ट्रैन हिमालयन क्विन में रिजर्वेशन करवा लिया था।
तय समय पर ट्रैन कालका से चल पड़ी। यह एक पांच डिब्बों की छोटी सी चेयर कार ट्रैन थी जिसमें शीशे की बड़ी बड़ी खिड़कीयां विशेष रुप से पर्यटकों के द्रष्यावलोकन के लिये लगाई गईं हैं ताकी यात्री बाहर के खुबसूरत नज़ारों को बिना परेशानी के देख सकें।
पहली बार पहाड़ों पर जा रहे थे अत: मन में दो बातों की उत्सुकता थी की पहली यह की पहाड़ कब तथा कहां से शुरु होंगे और दुसरी यह की ठंडा मौसम कहां से शुरु हो जाएगा, क्योंकी कालका तक तो जमीन प्लेन ही थी और जबर्दस्त गर्मी भी लग रही थी।
खिलौना रेलगाड़ी
कालका स्टेशन से चलने की तैयारी में
थोड़ी सी पेट पूजा
खिलौना रेल अंदर से…
शिमला पहुंचने का उत्साह…
चल पड़ी रेल पहाड़ों की ओर…
कालका के बाद ट्रैन लगातार उंचाई पर चढती जा रही थी, न ढलान न समतल सिर्फ़ चढाई। मन में ढेर सारा रोमांच, हिमाचल में होने का एह्सास, छोटी सी खिलौना रेलगाड़ी, सुहावना मौसम, ठंडी हवाओं के झोंके, खुबसूरत वादियां, घुमावदार ट्रेक, हर दो मिनट के बाद एक सुरंग तथा कई सारे पुल, छोटे छोटे तथा सुंदर रेल्वे स्टेशन जो की आम रेल्वे स्टेशनों से एकदम अलग थे, आकर्षक तथा मनमोहक डिज़ाईनों में बने स्टेशन भवन सब कुछ इतना अच्छा लग रहा था जैसे ये हकीकत न होकर कोई सपना हो।
हमलोग तथा ट्रैन में सवार सभी सहयात्री इस सफ़र का भरपूर आनंद ले रहे थे, हर कोई इन अनमोल नज़ारों को अपने कैमरों में कैद कर लेना चाहता था, फोटोग्राफ़ी की तो जैसे होड़ लगी हुई थी। अभी तो शिमला दूर था, सोच रहे थे यहीं इतना सुंदर लग रहा है तो शिमला कैसा होगा?
पिछे छुटता कालका….
चलती का नाम गाड़ी
पिछे छुटता कालका
घुमावदार सड़क
कोटी स्टेशन तथा पिछे से झांकती सुरंग
मुसाफ़िरी का लुत्फ़
मुसाफ़िरी का लुत्फ़
ट्रैन के समानांतर सड़क
ट्रैन से दिखाई देता एक पहाड़ी गांव तथा साथ साथ चलती सड़क
सनवारा स्टेशन
सनवारा स्टेशन
विश्राम के क्षण
घने जंगलों तथा पहाड़ों से गुजरती ट्रैन
ट्रैन रुकी और फोटोग्राफी शुरु
सुहाना सफ़र और ये मौसम ह्सीं
सुहाना सफ़र और ये मौसम ह्सीं
एक अन्य स्टेशन
बड़ोग
ट्रैन से दिखाई देता सोलन शहर
आखिर शिमला पहुंच ही गए
0 किमी कालका
6 किमी टकसाल
11 किमी गुम्मन
17 किमी कोटी
27 किमी सनवारा
33 किमी धर्मपुर
39 किमी कुमारहट्टी
43 किमी बड़ोग
47 किमी सोलन
53 किमी सलोगड़ा
59 किमी कंडाघाट
65 किमी कनोह
73 किमी कैथलीघाट
78 किमी शोघी
85 किमी तारादेवी
90 किमी टोटु (जतोग)
93 किमी समर हिल
96 किमी शिमला
इस खुबसूरत सफ़र का आनंद उठाते हुए शाम करीब 6.30 पर हम शिमला रेल्वे स्टेशन पर पहुंच गए. आगे की कहानी पढने तथा शिमला दर्शन के लिये इन्तज़ार किजीए ……
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