गोकर्ण और मुरुडेश्वर में लंकापति रावण के आत्मलिंग की कहानी
मेरे प्रिय घुमक्कड दोस्तों और उत्सुक पाठकों को मेरा सादर प्रणाम। पिछली कहानी में मैंने लिखा था कि मैं आपको ले चलूँगा, मुरुडेश्वर की ओर, जिसकी एक अलग महिमा है। तो आज मैं पहले उस महिमा (कथा) का वर्णन करूँगा, जिसके कारण मेरे और मुकेश के परिवार ने गोकर्ण और मुरुडेश्वर की यात्रा की थी। भगवान की कथा का श्रवण करना यह भक्ति की श्रेष्ठ और सरल भक्ति मानी गयी है, और भगवान की कथा का नैतिक रुप में अमल करने से आत्मा पवित्र होती है और अंत में भगवान की प्राप्ति होती है। अब यहाँ पर कथा सुनाना तो मुमकिन नहीं है, लेकिन मैं कथा लिख जरूर रहा हूँ, जिसे आप सब पढ़ सकते है।
यह कथा पढ़ने से पहले, मैं आप सब को बताना चाहता हूँ, कि आज मैं चिल्लाकर, आप सब के सामने, घुमक्कड के इस महान मंच पर महान, प्रतापी, पराक्रमी, मातृभक्त, एक ज़माने में तीनो लोकों का राजा, दस शीशों और बीस हाथों वाला, तेजस्वी शिव भक्त, दशानन रावणको ओमकार स्वरूपी प्रथम पूज्नीय श्री गणेशजी, मेरे इष्ट परमात्मा भोलेनाथ, आदिशक्ति परमेश्वरी जगदम्बा, परब्रह्मस्वरूप श्रीराम (श्री हरी) और हर दिन अपनी आँखों को दर्शन देने वाले, एकमात्र आदिदेव सूर्यदेव के साथ साथ कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ। आप सब सोच रहें होंगे की यह क्या हो गया है मुझे, जो कि मैं हमेशा भगवान के तीर्थों के वर्णन करने वाला बन्दा, एक छोटा सा भक्त आज एक असुर और जिसे एक महान खलनायक का खिताब मिला है, उसे क्यूँ प्रणाम कर रहा है? इसका जवाब मैं आपको कथा के अंत में दूँगा। चलिए अब कथा की ओर चलते है। इस कथा में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा माने हुए पाँचों सर्वोच्च देवों और नारद मुनि की भूमिका है। श्री गणेशजी, आदि शक्ति जगदम्बा, शिव शंकर भोले नाथ शम्भू, नारायण हरी विष्णु और आदिदेव सूर्य।
नीचे लिखी गयी कथा, मैंने गुरुचरित्र ग्रन्थ, स्कन्द पुराण और मुरुडेश्वर मंदिर के परिसर में विशाल शिव मूर्ती के नीचे स्थित नुमाइश में देख कर अपने भाव से लिखी है। थोडा बहुत भेद होगा दूसरी जगह से तो मुझे क्षमा कीजियेगा। कथा के फोटो भी उसी नुमाइश में से लिये गए है।
आइये गोकर्ण की कथा पढते और देखते है लेख और चित्रों द्वारा एक साथ :- बात त्रेतायुग की है जब रावण की माता कैकसी, मानस पुत्र ब्रह्मा पुलस्ति की पत्नी, प्रतिदिन लंका में समुद्र किनारे शिवजी की पूजा करती थी। हर दिन वह मिटटी का शिवलिंग बनाती थी, उसमे प्राण प्रतिष्ठा करती थी। फिर उसका पूजा व अभिषेक करती थी। फिर वह लिंग समुद्र के उतार चढ़ाव वाले प्रवाह में बह जाता।
रावण की माता मिटटी के शिवलिंग की पूजा करती है. Ravana's mother worshiping earthen shivalinga near sea.
एक दिन मातृभक्त रावण ने आपनी माँ से पूछा, कि क्यों इस मिट्टी के शिवलिंग को पूज रही हो। तो उसने बताया की मरने के बाद उसे कैलाश में स्थान मिलेगा। रावण ने कहा कि मैं स्वयं कैलाश ही आपके लिए ले आता हूँ, शिवजी की तपस्या करके। आप कृपया निश्चित रहिये। और रावण चल पड़ा कैलाश की ओर।
रावण अपनी माता के कहता है की वोह ओसके लिए कैलाश ही उठा कर लेके आएगा. Ravana says to his mother that he will bring Kailash Mountain for her.
रावण शिव शंकर की घोर तपस्या करता रहा ।
नारद मुनि जाते है श्री हरी विष्णु भगवान के पास, चिंतित और जिग्यात्सुक होकर। तो श्री हरी बोलते है की वह अपनी माया से रावण को भ्रमित करेंगे, जिससे रावण जो मांगने गया है वह उसे स्मरण नहीं रहे।
नारद और बाकी देवता भगवान श्री महाविष्णु के पास जाते है मदत के लिए. Narad and other gods come to Lord Vishnu for help.
बहुत तपस्या करने के बाद जब भगवान शिव प्रकट नहीं होते तो शक्तिशाली रावण आपने मजबूत हाथों से स्वयं कैलाश उठाता है और प्रचंडतापूर्वक हिलाता है। रावण के कैलाश हिलाने से सातों पाताललोक हिलने लगते है। शेषनाग अपना फन हिला देता है। कछुआ डर के मारे कापने लगता है। अमरपुर (इन्द्र की राजधानी) और स्वर्ग हैरान हो जाते है। पार्वती जी शिवजी से कहती है कि आज कैलाश को क्या हुआ है? इस संकट को रोकने के लिए कुछ कीजिये। शिवजी बोलते है “मेरा एक भक्त मेरी तपस्या कर रहा है, यह उसी के कारण हो रहा है।” पार्वती जी कहती है “कृपा करके सारे देवताओं की रक्षा कीजिये जो बहुत डर गए है।” शिवजी अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को दबाते है तो रावण के हाथ फँस जाते है। रावण शिवजी को प्रसन्न करने के लिए शिव तांडव स्त्रोत्र गाता है। यहाँ पर रावण का अहंकार अपनी ताकत का शिवजी विनाश करते है । इसलिए लिंगाष्टकम में लिखा गया है दुसरे पैराग्राफ़ में “रावण दर्प विनाशक लिंगम , तत्प्रनमामी सदाशिवालिंगम“।
शक्तिशाली मातृभक्त रावण अपने सैकड़ो हाथो से कैलाश उठाता है. Powerful devotee of his Mother, Ravana lifts Mount Kailash.
भोलेनाथ बहुत प्रसन्न होते है, और पार्वती के साथ प्रकट होते है, रावण के सामने। अब चलती है श्री हरी की माया। रावण कैलाश को भूलकर जगदम्बा पार्वती पर मोहित हो जाता है। और भगवान शिव से पार्वती को मांग लेता है। हमारे भोलेनाथ अपने भक्त को इतना चाहते है की वह पार्वती रावण को दे देते है लेकिन कहते है कि आप आगे-आगे चले और पार्वती जी पीछे-पीछे आएगी। जब तक लंका नहीं पहुँचते, तब तक पीछे मुडकर देखना मत और अगर देखा तो पार्वती वही स्थापित हो जायेगी। रावण ले चलता है पार्वती जी को लेकर।
रावण पार्वती माँ को ही मांग लेता है.और हमारे भोलेंनाथ दे देते है. Raavan asks for Parvati's hand. And Lord Shiva gives Parvati.
पार्वती अपने भाई श्रीहरी को याद करती है इस संकट का निवारण करने के लिए। श्री हरी भगवान इसके लिए नारद को भेज देते है रावण की ओर। जब रावण गोकर्ण पहुँचता है तो नारद अपनी वाक्पटुता से रावण को भ्रमित करके पूछता है कि किस बदसूरत और भयंकर स्त्री को ले जा रहा है? रावण कहता है की यह विश्वसुन्दरी जगदम्बा पार्वती है। नारद उसपर हँसता है और कहता है कि ज़रा पीछे मूड के देखो। तो रावण पीछे मुड के देखता है तो देवी ने भद्रकाली का रूप धारण किया हुआ था। और जैसे ही उसने देखा तो वह भद्रकाली की मूर्ति के रूप में गोकर्ण में स्थापित हो जाती है जैसे शिवजी ने कहा था। फिर नारद कहता है कि असली पार्वती ने पाताल में मायासुर के घर में जन्म लिया है जिसका नाम मंदोदरी है।
रावण देवी को त्याग देता है तो वोह भद्रकाली का रूप में गोकर्ण में बस जाती है. Raavan abandons Devi and in Bhadrakali form she stays in Gokarna.
रावण चल देता है पाताल की ओर। मायासुर से युद्ध करता है, उसे हराता है और उसकी बेटी मंदोदरी से शादी करता है।
शादी करने के बाद वह लंका में लेके आता है। रावण की माता यह सब देखकर उसे पूछती है “शादी करी वह ठीक है, लेकिन जिस काम के लिए गए थे, वह तो किया ही नहीं। कैलाश यहाँ लाना था और कहा की देवताओं ने उसे भ्रमित किया है। अब की बार लक्ष्य को हासिल करके ही आये।
रावण फिर से घोर तपस्या शुरू करता है। इस बार और भी कठिन और मुश्किल। शिवजी को पता था की वह क्या मांगने वाला है? इस लिए वह प्रकट नहीं होते है।
लेकिन इस मातृभक्त रावण की जिद के आगे जब भोलेनाथ प्रकट नहीं होते, तब वह एक-एक करके अपने सर काटने लगता है और भोलेनाथ को अर्पण करता है। भोलेनाथ से अब रहा नहीं जाता और और वे प्रकट होते है और रावण को वर मांगने को कहते है। रावण कहता है कि उसे अपनी माता के लिये कैलाश पर्वत चाहिए ताकि उसे मरने के बाद कैलाश नसीब हो। तो शिवजी ने कहा की उसके लिए कैलाश ले के जाने की कोई आवशकता नहीं। उनके आत्मा से एक शिवलिंग जिसे आत्मलिंग कहते है उसे निकालते है और कहते है कि यह उनके आत्मा से निकला है और स्वयं साक्षात शिव के समान है और इसे इस बार नीचे रखना मत लंका पहुँचने से पहले। रावण खुश होकर आत्मलिंग ले के जाता है।
रावण अपने शीश काटता है और उसकी नसों से संगीत बजा कर शिवाजी को प्रसन्न करता है. Ravana cuts his heads one by one and plays violin with his veins to please Lord Shiva.
फिर से देवता परेशान हो जाते है की अगर रावण आत्मलिंग ले के जाता है लंका में तो वह दिग्विजय हो जायेगा और उसे कोई हरा नहीं सकता। नारद मुनि इसका निवारण करने के लिए श्री गणेशजी के पास जाते है। गणेशजी मदद के लिए तैयार हो जाते है।
रावण फिर से जब गोकर्ण पहुँचता है तब गणेशजी एक बालक के रूप में गाय चराने का बहाना करके अपनी लीला करते है। उसी वक्त नारायण श्री हरी भगवान अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य भगवान को ढकते है। रावण को लगता है कि सूर्यास्त हो गया है और पूजा संध्या का वक्त हो गया है। वह बालक रुपी गणेश को कहता है कि वह पूजा करने समुद्र में जा रहा है, तब तक थोड़ी देर ले लिए वह यह आत्मलिंग पकड़ के रखे। गणेशजी आत्मलिंग लेते है और कहते है, की उनसे ज्यादा देर उठाया नहीं जाएगा. और वह तीन बार रावण को पुकारेंगे। अगर वह नहीं आयेंगे तो वह आत्मलिंग नीचे रख देगा। रावण फिर जाता है पूजा करने जाता समुद्र की ओर।
रावण आत्मलिंगा गणेश को देता है और पूजा करने समुद्र में जाता है. Ravana gives atmalinga to Ganesha for holding and goes to sea ofr performing pooja .
अब जैसे ही रावण समुद्र में पूजा शुरू करता है, गणेश जी अपनी लीला शुरू करते है। तीन बार जल्दी-जल्दी रावण को बुलाते है। और तुरंत आत्मलिंग नीचे धरती पर रखने लगते है।
गणेशजी रावण को बुलाते है आत्मलिंग को निचे रकने से पहले. Ganeshjee calls Raavan before dropping the Atmalinga.
रावण दूर से इशारा करता है, मत रखो, लेकिन तब तक गणेशजी ने अपना काम कर लिया था। आत्मलिंग नीचे रख दिया था। ऊपर से देवताओ के फूलों की बौछार गणेशजी पर पढ़ती है। रावण समझ जाता है कि देवताओं का काम हो गया।
रावण आकर गणेशजी को पकड़कर जोर से उसके सर पर चोट पहुँचाते है। इसलिए गणेशजी की मूर्ति जो गोकर्ण में है उसके सिर में एक खड्डा है और रावण के बल के कारण उनका सिर नीचे की तरफ और हाथ छोटे हो गए है।
रावण जोर उस आत्मलिंग को उठाने की कोशिश करता है। लेकिन नहीं उठा पाता। फिर उसे उखाड़ने की कोशिश करता है। उखाड़ते-उखाड़ते जो लिंग है उसका आकार गाय के कान जैसा हो जाता है। इस लिए जगह का नाम गो :-गाय , कर्ण :- कान, गोकर्ण कहते है। रावण उस लिंग को उठा नहीं सका और उसे महाबल का खिताब दिया। इसलिए उस आत्मलिंग को गोकर्ण महाबलेश्वर कहते है।
रावण ने गुस्से में उस आत्मलिंग के सारी सामग्री जो आत्मलिंग को ढके हुए थी, उसे फेक दिया, उस लिंग की डिबिया, ढक्कन, धागा और कपडा को अलग-अलग जगह पर फेक दिया। और वह सभी अलग जाकर गिर गए और 4 अलग-अलग लिंग में स्थापित हो गये।
1) गोकर्ण, महाबलेश्वर :- मुख्य लिंग
2) सज्जेश्वर :- जहां लिंग की डिबिया गिरी, (35 किमी करवर से)
3) धारेश्वर :- धागा जो लिंग से बंधा हुआ था, (45 किमी गोकर्ण से दक्षिण की ओर)
4) गुनावंतेश्वर :- जहाँ पर लिंग का ढक्कन गिरा था, (60 किमी गोकर्ण से दक्षिण की ओर)
5) मुरुडेश्वर :- पूरे लिंग को ढका हुआ कपड़ा जहा गिरा, ( (70 किमी गोकर्ण के दक्षिण की ओर)
अंत में भगवान शिव, पार्वती माँ और सारे देवता सहित इन पाँचों क्षेत्र में आते और इन्हें पञ्च क्षेत्र नाम देते है।
गोकर्ण का महत्व :- गोकर्ण एक ही ऐसी क्षेत्र है पूरी पृथ्वी में जहां शिवजी का वास्तविक और असली आत्मलिंग है. पुराण और ग्रन्थ ऐसा कहते है की मनुष्य को सारे तीर्थो के साथ एक बार तो गोकर्ण आना ही चाहिए .
रावण लिंग के पांच भागो को पांच जगह पर फेकता है. Raavan throws five parts of linga to five different places.
तो यह थी कथा, महान शिव भक्त रावण की, और पवित्र क्षेत्र गोकर्ण और मुरुडेश्वर की. नन्दन जी ने विशिष्ठ लेखक के इन्टरव्यू में पूछा था अंग्रेजी में “So you are Great devotee of Lord Shiva ?“ और मैंने उनको जवाब दिया था कि मैं बहुत छोटा सा शिव भक्त हूँ, तब उनके आवाज़ से ऐसा लग रहा था की वे चौक गए थे। उन्होंने आश्चर्यजनक भाव से कहा था “What?” मैंने वापिस कहा कि “Yes, I am a very small devotee of Lord Shiva”. उसका एक कारण तो मैंने ऊपर लिखी हुई कथा में लिख दिया है।
कथा का नैतिक :- अब चलते है, कथा के नैतिक भाग की ओर। क्या हो सकता है इस कथा का नैतिक। दशानन रावण ने इतना कठिन तप किया, अपने दस के दस शीशों को काटकर भोलेनाथ को प्रसन्न किया। यह उसने क्यूँ किया क्योंकि उसे अपनी माता से बहुत प्रेम था और वह बड़ा मातृभक्त था। तो वह आत्मलिंग अपने लिए नहीं, अपनी माता के लिए ला रहा था। तो इस कर्म के लिए उसे शिव का आत्मलिंग मिलना उसके कर्म का फल होना चाहिए, ऐसा हमें लगता है। लेकिन भगवान की लीला देखो जो जिसके भाग्य में है और उसके पूर्व कर्म के अनुसार उसे वही मिलता है, चाहे वह फिर रावण जैसा कठिन तप भी करे तो भी। और फिर भी अगर चर्चा आगे करनी हो तो रावण कौन था ?????
पहले भगवान श्री हरी विष्णु के द्वार पर दो पार्षद हुआ करते थे जय और विजय। एक बार हरी के द्वार पर ब्रह्मा के 4 मानस पुत्र आये दर्शन के लिए सनक, सनातन, सनान्दान और सनथकुमार। वे दिखने में बालक जैसे थे। तो जय-विजय ने उनका मजाक उडाया कि इतने छोटे बच्चों से भगवान नहीं मिलते। फिर उन मानस पुत्रों ने उन्हें शाप दिया कि वे जन्म-जन्म तक असुर जाति में जन्म लेंगे। जय-विजय ने उनसे क्षमा मांगी। तो फिर श्री हरी के अनुग्रह पर उन्होंने तीन जन्म तक शाप को सीमित रखा। सतयुग में जय-विजय ने हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष, त्रेता युग में रावण और कुम्भकरण, फिर द्वापर युग में शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में जन्म लिए थे। और तीनो जन्मो के बाद फिर से पार्षद बन गए। इसलिए उनका जीवन परमात्मा या विधाता ने लिखा था पूर्व कर्म के अनुसार।
इस कथा से कम से कम मुझे तो यही सीख मिलती है कि हमें भी हमारे पूर्व कर्म के अनुसार अपने अपने भोग विधाता ने निश्चित किये हुए है। यहाँ तक की हमारा कर्म क्षेत्र भी सीमित है। जो विधाता ने सोचा होगा हमारे लिए हम उसी कर्म में हम आगे विकास कर सकते है। फिर चाहे हम आगे-पीछे किधर भी हाथ पाँव हिलाए। इस बात का मतलब यह नहीं, कि हमें हमारे कर्म क्षेत्र और दूसरे क्षेत्र में परिश्रम नहीं करना चाहिए। अवश्य करना चाहिए। लेकिन अगर हम कुछ स्थान से आगे नहीं बढे तो हमे दुखी नहीं होना चाहिए। हमें नौकरी में प्रमोशन, व्यापार में दुगना लाभ, बड़ा घर, आलिशान गाडी, सुखभोगी जिंदगी आदि नहीं मिलती तो हम बहुत दुखी हो जाते है। यहाँ तक की हमारी उम्मीदे इतनी बढ़ गयी है कि छोटी-छोटी बाते भी सताने लगती है। दोस्तों के पास मोबाइल फोन, कैमरा, लैपटॉप, टीवी आदि अगर हमसे बेहतरीन है तो हम वैसी चीज़े को हासिल करने के पीछे लग जाते है.
मेरा आपसे निवेदन केवल इतना है खूब मेहनत करो, परिश्रम करो, विकास करो और अगर कुछ या बहुत सारी घटनाएँ, अगर हमारे हिसाब से न हो तो दुखी न हो और भगवान की इच्छा समझ कर खुश रहना चाहिए। रावण को आत्मलिंग तो नहीं मिला, लेकिन उसे शिवजी, पार्वती, गणेशजी, श्री राम के दर्शन के साथ साथ उस अत्मलिंग के दर्शन तो मिल ही गए। और आज मैं इतने युगों बाद आपको उसी रावण की महिमा बता रहा हूँ। इसलिए मैंने इस कथा के लिए दशानन रावण को सारे सर्वोच्च देवता के साथ प्रणाम किया था क्योंकि उसकी वजह से मैंने शिवजी के आत्मलिंग के दर्शन किये और आपको करवाऊंगा।
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